कृष्ण विवरों के विलक्षण गुणधर्म
किसी कृष्ण विवर का सम्पूर्ण द्रव्यमान एक बिंदु में केन्द्रित रहता हैं जिसे ‘केन्द्रीय विलक्षणता बिंदु’ (Central Singularity Point) कहते हैं। विलक्षणता बिंदु के आसपास वैज्ञानिको ने एक गोलाकार सीमा की कल्पना की हैं जिसे प्रायः ‘घटना क्षितिज’ (Event Horizon) कहा जाता हैं। घटना क्षितिज से परे प्रकाश सहित समस्त पदार्थ विलक्षणता बिंदु की दिशा में आकर्षित होकर खींचें चले जाते हैं। परन्तु घटना क्षितिज से होकर कोई भी वस्तु बाहर नही आ सकती हैं। घटना क्षितिज की त्रिज्या को ‘स्क्वार्जस्चिल्ड त्रिज्या’ (Schwarzschild Radius) के नाम से जाना जाता हैं, जिसका नामकरण जर्मन वैज्ञानिक और गणितज्ञ कार्ल स्क्वार्जस्चिल्ड के सम्मान में किया गया हैं। दिलचस्प बात यह हैं कि कार्ल स्क्वार्जस्चिल्ड ने कृष्ण विवरों के विद्यमानता को सैद्धांतिक रूप में सिद्ध करने के पश्चात् इसके भौतिक विद्यमानता को स्वयं अस्वीकृत कर दिया था। कार्ल स्क्वार्जस्चिल्ड और जॉन व्हीलर को कृष्ण विवर के खोज का श्रेय दिया जाता हैं।
आइंस्टाइन के विशेष सापेक्षता सिद्धांत (Theory of Special Relativity) के अनुसार एक निश्चित दूरी पर स्थित एक प्रेक्षक के लिए कृष्ण विवर के निकट स्थित घड़ियाँ अत्यंत मंद गति से चलेंगी। विशेष सापेक्षता सिद्धांत के अनुसार समय सापेक्ष हैं। समय व्यक्तिनिष्ठ हैं, जिस समय प्रेक्षक ‘अब’ कहता हैं, वह केवल स्थानीय निर्देश-प्रणाली पर ही लागू होती हैं, नाकि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पर! इस प्रभाव को ‘समय विस्तारण’ (Time Dilation) कहतें हैं। कृष्ण विवर के गुरुत्वाकर्षण के कारण, उससे दूर स्थित कोई भी प्रेक्षक यह देखेगा कि कृष्ण विवर के अंदर गिरने वाली कोई भी वस्तु उसके घटना क्षितिज के निकट बहुत कम गति से नीचें गिर रही हैं, उस तक पहुँचनें में अनंत काल-अवधि लगती हुई प्रतीत होती हैं। उस समय उस वस्तु की समस्त गतिविधियाँ अत्यंत धीमी होने लगेगी, इसलिए वस्तु का प्रकाश अत्यधिक लाल और धुंधला (अस्पष्ट) प्रतीत होगा। इस प्रभाव को ‘गुरुत्वीय अभिरक्त विस्थापन’ (Gravitational Red Shift) कहते हैं। अंततः कृष्ण विवर के अंदर गिरनेवाली वस्तु इतनी अधिक धुंधली हो जाएगी कि दिखाई देना बंद हो जायेगी। अधिकांशत: लोगो का यह मत होता हैं कि कृष्ण विवर ‘वैक्यूम क्लीनर’ की तरह व्यवहार करता हैं, परन्तु ऐसा नही हैं। जो भी वस्तु कृष्ण विवर के निकट जायेगा उसे ही वह निगलेगा। इसका अभिप्राय यह हैं कि यदि हमारा सूर्य एक कृष्ण विवर बन जाए, तब इसकी त्रिज्या 3 किमी० होगी, तो भी सभी ग्रहों की कक्षाएँ पूर्णतया अपरिवर्तित होंगी। कृष्ण विवर किसी भी ग्रह को निगल नही सकेगा, बशर्ते यदि वह ग्रह कृष्ण विवर के निकट न आवे।
ब्रह्माण्ड में कई प्रकार के कृष्ण विवर हैं जो अपने विशिष्ट भौतिक गुणों द्वारा पहचाने जाते हैं। ऐसे तारे जिनका द्रव्यमान सौर द्रव्यमान से कुछ गुना अधिक होता हैं और गुरुत्वीय संकुचन के कारण वे अंततः एक कृष्ण विवर में बदल जाते हैं। ऐसे कृष्ण विवरों को ‘तारकीय द्रव्यमान कृष्ण विवर’ (Stellar Mass Black Hole) कहते हैं। ऐसे कृष्ण विवर जिनका निर्माण आकाशगंगाओं के केंद्र में होता हैं, ‘अतिसहंत कृष्ण विवर’ (Super Massive Black Hole) कहलाते हैं। इनका द्रव्यमान सौर द्रव्यमान की तुलना में लाखों-करोड़ों गुना अधिक होता हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार हमारी आकाशगंगा-दुग्धमेखला के केंद्र में एक विशाल कृष्ण विवर हैं और इसका द्रव्यमान सौर द्रव्यमान से एक करोड़ गुना हैं। ऐसे कृष्ण विवर जिनका द्रव्यमान सौर द्रव्यमान से भी कम होता हैं, उनका निर्माण गुरुत्वीय संकुचन के कारण न होकर के, बल्क़ि अपनें केंद्रभाग के पदार्थ का दाब एवं ताप के कारण संपीडित होने से होता हैं। ऐसे कृष्ण विवरों को ‘प्राचीन कृष्ण विवर’ (Primordial Black Hole) या ‘लघु कृष्ण विवर’ (Small Black Hole) के नाम से जाना जाता हैं। इन लघु कृष्ण विवरों के बारे में वैज्ञानिकों की मान्यता हैं कि इनका निर्माण ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के समय हुआ होगा। भौतिकविद् स्टीफन हाकिंग के अनुसार हम ऐसे कृष्ण विवरों के अध्ययन से ब्रह्माण्ड की आरंभिक अवस्थाओं के बारे में बहुत कुछ पता लगा सकतें हैं।
कुछ कृष्ण विवर अपनें अक्ष पर एक नियत गति से घूर्णन भी करतें हैं। सर्वप्रथम वर्ष 1963 में न्यूजीलैंड के एक गणितज्ञ व वैज्ञानिक रॉय केर ने इन घूर्णनशील कृष्ण विवरों (Rotating Black Holes) के अस्तित्व को गणितीय आधार प्रदान किया। इन कृष्ण विवरों का आकार इनकें घूर्णन दर और द्रव्यमान पर निर्भर करता हैं। ऐसे कृष्ण विवरों को अब वैज्ञानिक ‘केर का कृष्ण विवर’ (Kerr’s Black Hole) कहकर संबोधित करतें हैं। इनकी संरचना बहुत जटिलतायुक्त होती हैं, एवं घटना क्षितिज भी गोलाभ (Spheroid) होती हैं। ऐसे कृष्ण विवर जो घूर्णन नही करतें हैं ‘स्क्वार्जस्चिल्ड कृष्ण विवर’ कहलाते हैं।