ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
कृष्ण विवरों के अस्तित्व में होने के संबंध में सर्वप्रथम सुझाव वर्ष 1783 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जॉन मिशेल (John Michell) ने, उस समय के ज्ञात सार्वभौमिक गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत के आधार पर प्रस्तुत किया था। मिशेल के अनुसार एक अत्यंत सघन एवं अतिसहंत तारा, जिसका गुरुत्वाकर्षण इतना प्रबल होगा कि उससें प्रकाश की किरणों का भी निकलना असम्भव हो जाएगा। तारे से उत्सर्जित होने वाली प्रकाश की किरणें अधिक दूर जाने से पहले ही तारे का गुरुत्वाकर्षण उसे अपनीं सतह पर वापस खींच लेगा। खगोलविद ऐसे सघन पिंडो को अब ‘कृष्ण विवर’ या ‘ब्लैक होल’ कहते हैं। मिशेल के अनुसार हम इसे देख तो नही सकेंगे, परन्तु इसके गुरुत्वीय प्रभाव को अवश्य अनुभव कर सकेंगे। उनकें अनुसार ब्रह्माण्ड में बहुत बड़ी संख्या में ऐसें तारे (कृष्ण विवर) विद्यमान हो सकतें हैं।
कृष्ण विवर (Black hole)
मिशेल के सुझाव के बाद वर्ष 1796 में, फ़्रांसीसी वैज्ञानिक एवं गणितज्ञ पियरे साइमन लाप्लास ने अपनीं पुस्तक ‘द सिस्टम ऑफ़ द वर्ल्ड’ (The System of the World) में मिशेल से अलग एवं स्वतंत्र रूप से कहा था कि अत्यंत कम क्षेत्र में अधिक द्रव्यमान वाले पिंड के गुरुत्वाकर्षण के कारण प्रकाश की किरणों का भी निकलना असम्भव होगा। लाप्लास के तर्क को समझने लिए सर्वप्रथम हमे यह समझना होगा कि पलायन वेग (Escape velocity) किसी ग्रह या तारे के लिए क्यों महत्वपूर्ण होता हैं। हम किसी वस्तु को ऊपर की ओर जितने अधिक वेग से फेंकते हैं, वह उतनी ही अधिक ऊंचाई तक ऊपर जाती हैं। यदि पृथ्वी पर हम एक गेंद को ऊपर फेंकते हैं, तो यह पृथ्वी पर वापस गिर जाता हैं। यदि एक निश्चित वेग सीमा को लांघकर एक रॉकेट को प्रक्षेपित करें, तो वह पृथ्वी के गुरुत्व-क्षेत्र को पार करके अन्तरिक्ष में पलायन कर जाएगा तथा पृथ्वी पर वापस नही आएगा। इस न्यूनतम वेग-सीमा को ‘पलायन वेग’ या ‘निर्गम वेग’ कहतें हैं। पृथ्वी की सतह से पलायन वेग लगभग 11.2 कि.मी./सेकेण्ड हैं। ध्यातव्य हैं कि किसी पिंड का गुरुत्वाकर्षण जितना अधिक होता हैं, उतना ही उसका पलायन वेग भी अधिक होता हैं। चूँकि कृष्ण विवरों का गुरुत्वाकर्षण अत्यधिक प्रबल होता हैं, इसलिए इसका पलायन वेग प्रकाश के वेग से भी अधिक होता हैं। पलायन वेग अत्यधिक होने के कारण प्रकाश सहित अन्य रेडियो तरंगे, एक्स-रे इत्यादि इसके प्रबल गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र से निकलने में असमर्थ होती हैं।
लाप्लास ने अपने तर्क में कहा था कि यदि किसी तारे का द्रव्यमान और उसके त्रिज्या का अनुपात अत्यधिक हो, तो पलायन वेग प्रकाश की गति से भी अधिक होगा और इस स्थिति में तारे से प्रकाश की किरणें उत्सर्जित नही हो पायेंगी क्योंकि उसका गुरुत्व-क्षेत्र अत्यंत प्रबल होगा। लाप्लास ने अपनी पुस्तक के तीसरे संस्करण में इस मत को त्याग दिया क्योंकि उन्नीसवीं सदी में न्यूटन के कणिका-सिद्धांत को समर्थन नही प्राप्त हो रहा था, उस समय यह माना जाता था कि प्रकाश द्रव्यमान रहित तरंग हैं, इसलिए यह गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से मुक्त रहता हैं। दरअसल तरंग सिद्धांत से यह स्पष्टीकरण नही दिया जा पा रहा था, कि प्रकाश गुरुत्वाकर्षण बल से कैसे प्रभावित होगा। गुरुत्वाकर्षण बल किस प्रकार से प्रकाश को प्रभावित करता हैं इस संबंध में तब तक कोई उपयुक्त सिद्धांत सामने नही आया जबतक बीसवीं सदी के आरम्भिक काल में अल्बर्ट आइंस्टाइन ने अत्यंत प्रभावशाली सैद्धांतिक विचार ‘सामान्य सापेक्षता सिद्धांत’ (Theory of General Relativity) का प्रतिपादन न कर दिया।