कैसे बनते है कृष्ण विवर ?
कृष्ण विवरो का निर्माण किस प्रकार से होता हैं, यह जानने से पहले, तारो के विकासक्रम को समझना आवश्यक होगा।
एक तारे का विकासक्रम आकाशगंगा (Galaxy) में उपस्थित धूल एवं गैसो के एक अत्यंत विशाल मेघ (Dust & Gas Cloud) से आरंभ होता हैं। इसे ‘नीहारिका’ (Nebula) कहते हैं।
जब गैस और धूलों से भरे हुए मेघ के घनत्व में वृद्धि होती है। उस समय मेघ अपने ही गुरुत्व के कारण संकुचित होने लगता है। मेघ में संकुचन के साथ-साथ उसके केन्द्रभाग के ताप एवं दाब में भी वृद्धि हो जाती है। अंततः ताप और दाब इतना अधिक हो जाता है कि हाइड्रोजन के नाभिक आपस में टकराने लगते हैं और हीलियम के नाभिक का निर्माण करनें लगतें हैं। तब तापनाभिकीय संलयन (Thermo-Nuclear Fusion) आरंभ हो जाता है। तारों के अंदर यह अभिक्रिया एक नियंत्रित हाइड्रोजन बम विस्फोट के समान होती हैं। इस प्रक्रम में प्रकाश तथा ऊष्मा के रूप में ऊर्जा उत्पन्न होती है। इस प्रकार वह मेघ ऊष्मा व प्रकाश से चमकता हुआ तारा बन जाता है। तापनाभिकीय संलयन से निकलीं प्रचंड ऊष्मा से ही तारों का गुरुत्वाकर्षण संतुलन में रहता हैं, जिससें तारा अधिक समय तक स्थायी बना रहेगा।
अंतत: जब तारे का दाना-पानी (हाइड्रोजन तथा अन्य नाभिकीय ईंधन) खत्म हो जायेगा, तो उसे अपनें गुरुत्वाकर्षण को संतुलित करने के लिए पर्याप्त ऊष्मा नही प्राप्त हो पायेगा। जिसके कारण तारा ठंडा होने लगेगा। वर्ष 1935 में भारतीय खगोलभौतिकविद् सुब्रमण्यन् चन्द्रशेखर (Subrahmanyan Chandrasekhar) ने यह स्पष्ट कर दिया, कि अपने ईंधन को समाप्त कर चुके सौर द्रव्यमान से 1.4 गुना द्रव्यमान वाले तारे, जो अपने ही गुरुत्व के विरुद्ध स्वयं को नही सम्भाल पाता हैं। उसके बाद तारे के अंदर एक विस्फोट होता हैं, जिसे अधिनवतारा विस्फोट कहा जाता हैं। विस्फोट के बाद यदि उसका अवशेष बचता हैं, तो वह अत्यधिक घनत्वयुक्त ‘न्यूट्रान तारा’ (Neutron star) बन जाता हैं। आकाशगंगा में ऐसे बहुत से तारे होते हैं जिनका द्रव्यमान सौर द्रव्यमान से तीन-चार गुना से भी अधिक होता हैं। ऐसे तारों पर गुरुत्वीय खिचांव अत्यधिक होने के कारण तारा संकुचित होने लगता हैं, और दिक्-काल (Space-Time) विकृत होने लगती हैं, परिणामत: जब तारा किसी निश्चित क्रांतिक सीमा (Critical limit) तक संकुचित हो जाता हैं, और अपनें ओर के दिक्-काल को इतना अधिक झुका लेता हैं कि अदृश्य हो जाता हैं। यही वे अदृश्य पिंड होते हैं जिसे अब हम ‘कृष्ण विवर’ या ‘ब्लैक होल’ कहतें हैं। अमेरिकी भौतिकविद् जॉन व्हीलर (John Wheeler) ने वर्ष 1967 में पहली बार इन पिंडो के लिए ‘ब्लैक होल’ (Black Hole) शब्द का उपयोग किया।
यदि पृथ्वी के पदार्थों का घनत्व लाखों-करोंड़ों गुना अधिक हो जाए तथा इसके आकार को संकुचित करके 1.5 सेंटीमीटर छोटी कर दिया जाए तो ऐसी अवस्था में प्रबल गुरुत्वाकर्षण बल के कारण पृथ्वी भी प्रकाश- किरणों को उत्सर्जित नही कर सकेगी और यह एक कृष्ण विवर बन जाएगी। किसी भी कृष्ण विवर में द्रव्यमान की तुलना में घनत्व अत्यधिक महत्वपूर्ण होता हैं क्योंकि घनत्व, द्रव्यमान और मात्रा का अनुपात होता है। यदि सूर्य को संकुचित करकें इसकी 700,000 किमी० त्रिज्या को 3 किमी० में परिवर्तित कर दिया जाए, तो इसकी परिणति कृष्ण विवर के रूप में होगी। हम जानते हैं कि पृथ्वी एवं सूर्य का इस प्रकार से संकुचित होना असम्भव हैं, क्योंकि न तो पृथ्वी का द्रव्यमान और गुरुत्वाकर्षण बल इतना अधिक हैं और न ही सूर्य का।