क्वाण्टम भौतिकी के विकास की कहानी : मानव-जाति को कुछ महत्वपूर्ण संदेश
इस समय क्वाण्टम भौतिकी भौतिक विज्ञान की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण और सुस्थापित शाखा है। इसके विकास की कहानी मानव-जाति को कुछ अत्यन्त महत्वपूर्ण संदेश देती है। इस कहानी और उन संदेशों को देखना हमारे लिए रोचक और हितकर होगा। नीचे मैं उसे संक्षेप में कहने का प्रयास करूंगा।
आधुनिक विज्ञान के इतिहास में प्रकाश की प्रकृति पर काफी समय से विवाद रहा। आधुनिक विज्ञान के विकास से पहले अनेक शताब्दियों तक इसके विषय में लोगों की भिन्न-भिन्न धारणाएं रहीं जिनमें मैं नहीं जाऊंगा। 17वीं शताब्दी में महान वैज्ञानिक सर आइज़क न्यूटन ने इसे कणों से मिल कर बना हुआ बताया था। सन् 1801 में थॉमस यंग ने डबल स्लिट प्रयोग किया और उसमें प्रकाश की तरंग प्रकृति के प्रमाण मिले। ऑगस्टाइन जीन फेसनेल ने भी इसे तरंग बताया। 19वीं शताब्दी में जेम्स क्लर्क मैक्सवेल ने इसे विद्युत-चुम्बकीय तरंगों से बना हुआ बताया। प्रकीर्णन जैसे गुण इसकी इस प्रकृति की ओर संकेत करते थे। सन् 1900 में मैक्स प्लांक ने क्वाण्टाइज्ड एनर्जी लेवल्स की बात की। 20वीं शताब्दी में लुई डी ब्रोग्ली ने प्रकाश की तरंग और पार्टिकल ड्यूलिटी के विषय में बताया। रिचर्ड फीनमैन और जूलियन श्विंगर ने प्रकाश से संबंधित क्वाण्टम इलेक्ट्रॉन डायनामिक्स के बारे में बताया। यह विवाद भी होता रहा कि क्या प्रकाश की तरंगों को चलने के लिए किसी ईथर जैसे सर्व-व्यापक तत्व की आवश्यकता होती है अथवा नहीं। बाद में यह विवाद ईथर की अनुपस्थिति के पक्ष में समाप्त हुआ।
सन् 1905 में एक युवा वैज्ञानिक - जो स्विस पेटेंट ऑफिस में एक क्लर्क था - ने प्रकाश के फोटोइलेक्ट्रिक प्रभाव की खोज की। इस युवा वैज्ञानिक को बाद में विश्व ने महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टाइन के रूप में जाना। इस प्रभाव में कुछ विशेष पदार्थों पर प्रकाश पड़ने पर विभिन्न ऊर्जाओं के इलेक्ट्रॉन उत्सर्जित होते थे। आजकल सोलर सैल्स इसी सिद्धान्त पर बनते हैं। फोटोइलेक्ट्रिक प्रभाव को इस आधार पर समझाया जा सकता था कि प्रकाश छोटे-छोटे कणों - अर्थात् फोटॉन्स - से मिल कर बना होता है और इन कणों में विशिष्ट और विभिन्न ऊर्जाओं के पैकेट्स - अर्थात् क्वाण्टा - होते हैं। 19वीं शताब्दी के अंत में एक और समस्या आ रही थी। एक परफेक्ट 'ब्लैक बॉडी' से उत्सर्जित रेडिएशन का अध्ययन करते समय क्लासिकल फिजिक्स के नियमों के अनुसार - जिसमें ऊर्जा 'निरन्तर' (Continuous) मानी जाती थी - ब्लैक बॉडी द्वारा अनन्त ऊर्जा का उत्सर्जन करने के निष्कर्ष प्राप्त होते थे। यह एक असम्भव बात थी। मैक्स प्लांक द्वारा बतायी गयी क्वाण्टम थ्योरी - जिसमें ऊर्जा निरन्तर न होकर छोटे-छोटे पैकेट्स के रूप में थी - इन सब परेशानियों से हमें छुटकारा दिलाती थी और बिल्कुल सही निष्कर्ष देती थी।
जब वैज्ञानिकों ने परमाणुओं के अंदर के संसार में झांकना शुरू किया तो उन्होंने पाया कि सूक्ष्म अंतर्परमाण्विक कणों का संसार एक अनोखा संसार है। उन्होंने पाया कि इन कणों के व्यवहार को समझने के लिए एक विशेष भौतिकी और एक विशेष गणित की आवश्यकता है। सूक्ष्म कणों की इस भौतिकी को क्वाण्टम भौतिकी का नाम दिया गया। इस क्वाण्टम भौतिकी के कुछ मूलभूत नियम थे जिनमें से एक नियम वर्नर हाइजेनबर्ग द्वारा दिया गया अनिश्चितता का सिद्धान्त था। इसके अनुसार इन कणों की स्थिति और संवेग में सदैव एक अनिश्चितता होती है। किसी कण की स्थिति और संवेग को सही-सही नहीं नापा जा सकता है। नापने में यह कमी हमारे यंत्रों अथवा हमारी बुद्धि की कमी नहीं होती है - यह हमारे ब्रह्माण्ड का एक मूलभूत गुण है। कणों के अतिरिक्त यह अनिश्चितता बड़े पदार्थों के व्यवहार में भी होती है लेकिन निश्चित नियमों के अनुसार वह कणों के मुकाबले कम होती जाती है।
प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टाइन ने अनिश्चितता के इस सिद्धान्त का विरोध किया। ऐसा करने के पीछे उनके कोई ठोस वैज्ञानिक आधार नहीं थे। इसके पीछे केवल उनके संस्कार थे, बचपन से प्राप्त एक विचारधारा को मानने की धारणाएं थीं और उनके पूर्वाग्रह थे। उनके विचारों के अनुसार यह ब्रह्माण्ड अनिश्चित नहीं हो सकता था। यह मानना उनकी ईश्वर के स्वरूप के प्रति बनाई गई उनकी धारणाओं के विरुद्ध जा रहा था। उन्होंने कहा - "God does not play dice" - अर्थात् ईश्वर पांसे नहीं खेलता है, उसका कोई कार्य अनिश्चित नहीं है। तब तक जो फिजिक्स चल रही थी - जिसे न्यूटोनियन या क्लासिकल फिजिक्स कहते हैं - के अनुसार घटनाओं की गणना भली प्रकार की जा सकती थी। जैसे यदि हम किसी क्रिकेट की गेंद को बल्ले से मारें और यदि हमें मारने का बल, बल लगाने का कोण, गेंद और बल्ले के पदार्थ की प्रकृति, गुरुत्वाकर्षण, हवा का प्रवाह, उसका प्रतिरोध, घनत्व, नमी आदि अनेक घटक मालूम हों तो हम निश्चितता से यह गणना कर सकते हैं कि गेंद किस दिशा में, किस वेग से और कितनी दूरी तक जाएगी। लेकिन क्वाण्टम भौतिकी इसे गलत कहती थी। वह इन बातों में एक अनिश्चितता का पुट बताती थी। वह किसी घटना की सम्भावनाओं की बात करती थी, वह अनिश्चित भविष्य की बात करती थी - यद्यपि पदार्थ की मात्रा बढ़ते जाने के साथ कुछ निश्चित नियमों के अनुसार यह अनिश्चितता कम होती जाती थी।
क्वाण्टम भौतिकी की गणित सामान्य गणित से बहुत भिन्न थी। इसके निष्कर्ष हमारे रोजमर्रा के अनुभवों से बहुत परे थे। यह 'क्वाण्टम एंटेंगलमेंट' की बात करती थी, जिसमें एक दूसरे से सम्बन्धित और विशेष रूप से परस्पर गुंथे हुए दो विशेष कण, भले ही परस्पर कितनी भी दूरी पर हों, आपस में जुड़े रहते थे। ये कण सभी अवस्थाओं में एक साथ मिलते थे - अर्थात् ये 'सुपरपोजीशन' की अवस्था में होते थे। इनको देखने पर उनकी एक विशेष अवस्था स्थिर हो जाती थी - जैसे किसी इलेक्ट्रॉन का स्पिन या फोटॉन का पोलराइजेशन। किसी एक कण को देखने पर उसकी जो अवस्था स्थिर होती थी, उससे कितनी भी दूरी पर स्थित उससे जुड़ा हुआ दूसरा कण उसकी विपरीत अवस्था में उसी समय स्थिर हो जाता था। इस सुपरपोजीशन या इस मिश्रित अवस्था को कण का 'वेव फंक्शन' भी कहते हैं। जब किसी कण को देखने पर उसकी मिश्रित अवस्था नष्ट हो जाती है तब हम कहते हैं कि उस कण का वेव फंक्शन कोलैप्स कर गया। डबल स्लिट प्रयोग में किसी कण को देखने - अर्थात् ऑब्जर्व करने - पर उसकी प्रकृति उसके तरंग रूप में स्थिर हो जाती थी। बाद में यह पाया गया कि इस 'देखने' में यह आवश्यक नहीं है कि इसे कोई मनुष्य ही देखे। यह यंत्रों द्वारा रिकॉर्ड भी किया जा सकता है और इसमें मनुष्य की चेतना की कोई भूमिका नहीं है।
इस क्रमश: विकसित होती क्वाण्टम थ्योरी के अनुसार इस ब्रह्माण्ड में इसकी घटनाओं में एक रैन्डमनेस थी, एक अनियमितता थी। इसके अनुसार इस ब्रह्माण्ड की कोई फिक्स्ड रियलिटी - एक निश्चित वास्तविकता - नहीं होती थी। हम हर पल इसकी एक रियलिटी रचते हैं। इस रियलिटी को रचने की सम्भावनाएं होती हैं, प्रायिकताएं होती हैं। जंगल में किसी पेड़ से कोई पत्ता गिरा अथवा नहीं, हम बिना देखे यह निश्चितता से नहीं बता सकते हैं। हम केवल इसकी सम्भावनाएं, इसकी प्रायिकताएं, बता सकते हैं। उन सम्भावनाओं में से एक सम्भावना को वास्तविकता बनाने के लिए हमें उसे देखना होगा, उसे नापना होगा। यह विश्व - विशेष रूप से अत्यन्त सूक्ष्मता के स्तर पर - केवल सम्भावनाओं का विश्व है, एक आभासी विश्व है, जिसकी सम्भावनाओं की गणना की जा सकती है। यह वास्तविक है लेकिन इसकी वास्तविकता में एक आभास का पुट (Virtual Reality) भी है।
1920 के दशक में नील्स बोर, इरविन श्रॉडिंगर, वर्नर हाइजेनबर्ग और पॉल डीराक जैसे नौजवान वैज्ञानिक क्वाण्टम थ्योरी पर काम कर रहे थे। आइन्स्टाइन ने इन बातों पर व्यंग्य और आपत्ति करते हुए कहा कि "Is the Moon not there if I can not see it?" - "यदि मैं चंद्रमा को देख नहीं रहा हूं तो क्या वह वहां पर विद्यमान नहीं है?" आइन्स्टाइन ने इस थ्योरी को ध्वस्त करने का मन बना लिया। उन्होंने अपने अनुसार इस थ्योरी की सबसे कमजोर कड़ी पर प्रहार किया। उनके अनुसार यह कमजोर कड़ी प्रकाश की गति-सीमा को पार न कर सकने के उनके सिद्धान्त का अतिक्रमण करती थी। लेकिन जिस सिद्धान्त को वह कमजोर कड़ी समझ रहे थे वह आगे चल कर क्वाण्टम मैकेनिक्स का एक मजबूत आधार-स्तम्भ बना। इस स्तम्भ का नाम 'क्वाण्टम एन्टेंगलमेंट' था।
आइन्स्टान और दो अन्य वैज्ञानिकों ने 1930 के दशक में एक शोध-पत्र प्रकाशित कराया जो आगे चल कर 'EPR Paradox' के नाम से जाना गया। इस पैराडॉक्स को बताते हुए आइन्स्टाइन ने कहा कि प्रकृति तो निश्चितता के साथ ही चलती है, केवल हमें कुछ बातों का ज्ञान नहीं होता है। कुछ छिपे हुए वैरियेबल्स - 'Hidden Variables' - होते हैं और उनके कारण हमें प्रकृति में अनिश्चितताएं लगती हैं। लेकिन वह यह नहीं बता पाए कि ये हिडन वैरियेबल्स क्या होते हैं।
इस निश्चितता और अनिश्चितता के विषय पर पुरानी विचारधारा और नई विचारधारा के वैज्ञानिकों में वैचारिक तलवारें खिंच गईं। लेकिन फिर द्वितीय विश्व-युद्ध शुरू हो गया और तब वैज्ञानिकों की प्राथमिकताएं बदल गईं। तब इन गंभीर विषयों पर विचार बंद हो गया। सन् 1955 में आइन्स्टाइन की मृत्यु हो गई लेकिन उनकी मृत्यु के पहले यह दिखाई पड़ने लगा था कि क्वाण्टम भौतिकी के निष्कर्षों से अनेक चीजों के सटीक उत्तर सामने आते हैं। 'चंद्रमा को न देखने पर भी चंद्रमा विद्यमान है अथवा नहीं', जैसे प्रश्नों के भी उचित उत्तर उपलब्ध थे और इस बात को आइन्स्टाइन ने स्वीकार भी किया था। एक पूर्वाग्रह-युक्त मानव होने के अतिरिक्त वह एक वैज्ञानिक भी थे इसलिए वह अपनी एक गलत बात पर अड़े नहीं रहे। उन्होंने एक प्रामाणिक बात को, एक सत्य को, स्वीकार किया। आइन्स्टाइन की एक अन्य भूल अपने पूर्वाग्रहों के कारण ब्रह्माण्ड के प्रसार को झुठलाने के लिए अपनी ही समीकरणों से प्राप्त निष्कर्ष को पलटने के लिए की गयी 'कॉस्मोलॉजिकलल कॉन्स्टेण्ट' की कल्पना थी और बाद में यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाने पर कि ब्रह्माण्ड का प्रसार हो रहा है, उन्होंने इसे अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल माना था। यद्यपि बहुत बाद में यह कॉस्मोलॉजिकल कॉन्स्टेण्ट खगोल-विज्ञान में कुछ बदले हुए रूप के साथ पुनः लाया गया था।
1960 के दशक में एक भौतिक विज्ञानी जॉन स्टुअर्ट बेल ने European Organisation for Nuclear Research (CERN) में इस विषय पर गंभीर कार्य किया और उन्होंने सन् 1964 में एक शोध-पत्र प्रकाशित कराया। यह शोध-पत्र था - 'On the EPR Paradox'. इस शोध-पत्र में 'बेल्स थ्योरम' निकल कर आई। इस थ्योरम से यह सिद्ध हो रहा था कि आइन्स्टाइन की हिडन वैरियेबल्स वाली बात गलत थी। लेकिन इस थ्योरम को प्रायोगिक रूप से परीक्षित करने में उस समय की तकनीकी क्षमता आड़े आ रही थी।
सन् 1972 में कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में कार्यरत भौतिक शास्त्री जॉन क्लॉजर ने प्रयोगशाला में एक प्रयोग किया और इस प्रयोग के निष्कर्षों ने हमारी क्लासिकल फिजिक्स की विचारधारा को पूरी तरह बदल दिया। मानव-जाति ने सत्य की ओर एक दृढ़ कदम आगे रखा। फिजिक्स क्लासिकल फिजिक्स की दहलीज लांघ कर क्वाण्टम फिजिक्स को गले लगाने की ओर बढ़ चली।
लेकिन क्लॉजर के प्रयोग में कुछ लूपहोल्स बचे हुए थे जिसके कारण आइन्स्टाइन की बात के सही होने की कुछ सम्भावनाएं फिर भी बची हुई थीं। 80 के दशक में भौतिक शास्त्री एलाइन आस्पैक्ट ने एक अन्य प्रयोग किया। इन्होंने गलती की सभी सम्भावनाओं को दूर करते हुए पूरी तरह सटीक निष्कर्ष दिए। इन्होंने क्वाण्टम भौतिकी को पूरी तरह स्थापित कर दिया। इसके बाद एन्टॉन जैलिंगर ने 'क्वाण्टम टेलीपोर्टेशन' जैसे अनेक प्रयोगों को अंजाम दिया और क्वाण्टम भौतिकी में नए ज्ञान का समावेश किया। सन् 2022 का फिजिक्स का नोबेल पुरस्कार क्वाण्टम मैकेनिक्स में महत्वपूर्ण कार्य करने के लिए तीन वैज्ञानिकों को दिया गया था। इस 21वीं शताब्दी में क्वाण्टम फिजिक्स पर नित्य नवीन कार्य हो रहे हैं और इस पर आधारित अनेक आविष्कार भी हो रहे हैं। क्वाण्टम कम्प्यूटर जैसे अत्यन्त तीव्र गति से गणना करने में सक्षम कम्प्यूटर इन आविष्कारों का एक उदाहरण है। क्वाण्टम टेलीपोर्टेशन इसका एक अन्य उदाहरण है।
विज्ञान और क्वाण्टम भौतिकी के एक अंश के विकास की इस कहानी से हमें कुछ संदेश मिलते हैं। इससे हमें संदेश मिलता है कि गलत साबित होना कोई बुरी बात नहीं है। इससे हमें आगे बढ़ने का एक रास्ता मिलता है। हम सदैव सही नहीं हो सकते हैं। केवल हमें अपनी गलतियों को स्वीकार करना आना चाहिए हमारे मन खुले होने चाहिए। हमें पूर्वाग्रहों, फिक्स्ड विचारधाराओं और रूढ़ियों के स्थान पर वैज्ञानिक प्रमाणों को महत्व देना चाहिए। इस संसार में ऐसी बहुत सी बातें संभव हैं जो हमारे रोजमर्रा के अनुभवों और 'कॉमन सेंस' से परे होती हैं। कॉमन सेंस केवल हमारे रोजमर्रा के अनुभवों से बनी धारणाओं का नाम है। हमारे मन इतने खुले होने चाहिए कि हम अपने रोजमर्रा के अनुभवों से बनी धारणाओं से हट कर भी सोच सकें।
इस कहानी से हमें यह संदेश भी मिलता है कि किसी व्यक्ति की कोई एक बात गलत होने का यह अर्थ नहीं है कि उस व्यक्ति की हर बात गलत है। हर व्यक्ति सही और गलत, अच्छाई और बुराई का मिश्रण होता है। यदि आइन्स्टाइन क्वाण्टम थ्योरी के विषय में गलत थे तो उन की थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी, लिमिटिंग स्पीड और फोटोइलेक्ट्रिक इफेक्ट जैसी बातें सही हैं। इन्होंने संसार के भौतिक विज्ञान को एक नई दिशा दी है।
इस कहानी से हमें यह संदेश भी मिलता है कि परस्पर वैचारिक मतभेद होने पर हमें दूसरे को अपशब्द नहीं कहना चाहिए, हमें दूसरे पर व्यंग्य नहीं करना चाहिए, हमें दूसरे की बात विचारपूर्वक सुननी चाहिए और हमें अपने पक्ष को नम्र, स्पष्ट और तार्किक रूप से पुष्ट करना चाहिए, हमें तर्कसंगत रूप से सोचना चाहिए, हमें प्रमाणों को महत्व देना चाहिए और हमारे प्रमाणों की कसौटी तार्किक होनी चाहिए। हमें यह तय करके चलना पड़ेगा कि हम कुछ रूढ़िवादी विचारों को मान्यता देने के अनुसार ही विचार करें अथवा एक सत्य पर पहुंचने के विचारों को महत्व देने के अनुसार।
इस कहानी से हमें यह भी दिखाई पड़ता है कि हमारे गलत होने पर यह आवश्यक नहीं है कि हमारी सम्पूर्ण उपयोगिता समाप्त हो जाए। थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी और क्वाण्टम फिजिक्स के सम्मुख क्लासिकल फिजिक्स के गलत सिद्ध होने पर उसकी उपयोगिता समाप्त नहीं हो गई। रोजमर्रा के कार्यों के लिए वह सरल है। रोजमर्रा की परिस्थितियों में वास्तविकता से उसका अंतर बहुत कम होता है। लेकिन कृत्रिम उपग्रह की स्थिति देखने के लिए या Global Positioning System द्वारा हमारी स्थिति जानने के लिए यदि हम 'समय' पर गुरुत्वाकर्षण और गति के प्रभावों की गणना नहीं करेंगे, हम कुछ चीजों के क्वाण्टम प्रभावों को नहीं देखेंगे, हम कण भौतिकी में क्वाण्टम प्रभावों की उपेक्षा करेंगे, तो हमारी गणनाओं में बहुत गलतियां सामने आएंगी। अपने-अपने स्थान पर नए और पुराने दोनों का महत्व है। कहा भी गया है - 'जहां काम आवै सुई, कहा करै तलवार।'
इस कहानी पर विचार करने पर हमें यह भी दिखाई पड़ता है कि हमारे अधिकांश धार्मिक मतों में कुछ मूलभूत कमियां हैं। वे सब सदैव स्वयं को सम्पूर्ण सत्य एवं स्वयं से अंतर रखने वाले अन्य मतों को गलत कहते हैं। उनकी गलतियां दिखाई जाने पर भी वे उसे मानने को तैयार नहीं होते हैं - वह सत्य को स्वीकार करने को तैयार नहीं होते हैं। वे तथ्यों से नहीं वरन् पूर्वाग्रहों और धारणाओं से संचालित होते हैं। वे स्वयं को बदलने को तैयार नहीं होते हैं। वे स्वयं को सही सिद्ध करने के लिए कुतर्कों का सहारा लेते हैं, वे इसके लिए बातों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करते हैं, और ऐसा करके वे मानवता के विकास का रास्ता बंद कर देते हैं। हमें इन मतों की इस प्रवृत्ति से बचना चाहिए।
यह लेख मानवता के ज्ञान के विकास के एक अंश पर प्रकाश डालता है। विज्ञान के एक भाग के विकास की इस छोटी सी कहानी से हम मानव-जाति के हित के ये अत्यन्त महत्वपूर्ण संदेश ग्रहण कर सकते हैं। केवल हमारे अंदर उन्हें ग्रहण करने की समझ और इच्छा होनी चाहिए।