तथ्य-विवेचना
भाग 5... मानव-जीवन की व्यवस्थाओ और अव्यवस्थाओ को देखना और लेखमाला का निष्कर्ष (समापन किश्त)
हम देखते है कि इस पृथ्वी पर सामाजिक रूप से व्यवस्थाओ के साथ अनेक अव्यवस्थाए भी फैली है। यहां भ्रष्टाचार है, यहां हत्याए है, यहां बलात्कार है और यहां अन्याय है। क्या हम इसे एक पूर्ण सुव्यवस्थित संसार कहेगे ? क्या एक सुव्यवस्था यह नही होगी कि कहीं कोई अन्याय ही न हो ? यह कहा जाता है कि अन्याय करने वाला अपनी इच्छा का स्वामी है और उसे अन्याय करने के बाद इस जन्म या अगले किसी जन्म मे मानव अथवा ईश्वर द्वारा इस बात का दंड दिया जाता है। यही बात अच्छे कार्य के पुरस्कार के साथ भी है। लेकिन क्या एक बेहतर व्यवस्था यह नही होगी कि किसी निर्दोष के साथ अन्याय ही न हो ? किसी निर्दोष के साथ अन्याय हुआ, फिर अन्यायी को दंड दिया गया - क्या यह एक बेहतर व्यवस्था कही जा सकती है ? यहां के न्यायालयो मे सालो-साल लगने वाली देर को भी लोग अव्यवस्था या कुव्यवस्था बोलते है, तो फिर अगले जन्म मे या अनेक जन्म बाद मिलने वाले दंड अथवा पुरस्कार को अव्यवस्था अथवा कुव्यवस्था क्यो नही कहा जाएगा ? यहां लड़कियो के साथ वीभत्स बलात्कार और फिर उनकी भयावह रूप से हत्या हो जाती है, वह अपनी मदद के लिए ईश्वर को पुकारती रहती है लेकिन कोई उनकी मदद को नही आता है। वह सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान ईश्वर, वह परमपिता, वह व्यवस्थापक, वह पूर्ण न्यायी अपनी संतानो के साथ इस अन्याय को होता हुआ चुपचाप देखता रहता है। क्या इसे एक अच्छी व्यवस्था कहा जा सकता है ? क्या कोई भी अच्छी व्यवस्था वाला मानवीय शासक ऐसा करना चाहेगा ? क्या कोई साधारण पिता भी ऐसा करना चाहेगा ? फिर, जो शक्ति हर अन्यायी को दंड दे सकती है - भले ही वह दंड उसे कुछ जन्मो के बाद दे, जो शक्ति इतना लंबा हिसाब-किताब रख सकती है, वह उसे अन्याय करने से रोक भी सकती है। या फिर हम यह कहे कि जिसके साथ तथाकथित अन्याय हुआ, वह अन्याय उसके इस अथवा पूर्व जन्मो के कुकर्मो का फल था, इसलिए यह उसके साथ अन्याय नही था - यह उसके साथ न्याय था। लेकिन तब तो उसके साथ अन्याय करने वाला दोषी ही नही हुआ - तब उसे दंड क्यो मिलना चाहिए ? फिर वह पूर्व जन्म का तथाकथित दोषी भी दोषी कैसे हुआ - वह भी किसी विधान के अनुसार ही कार्य कर रहा था ? वह पूर्वजन्म मे भी किसी पीड़ित के पूर्व जन्म के कुकर्मो के कारण ही उसके साथ क्रूरता अथवा अन्याय कर रहा होगा ! तब क्या हम यह कहे कि नित्य होने वाली हत्याए, बलात्कार, आतंकवाद और भारत-विभाजन की विभीषिका के पीड़ितो की व्यथा उनके इस अथवा पूर्व जन्म के कुकर्मो का फल होती है और थी - इसमे उन आतताइयो का कोई दोष नही था ? ये बाते व्यवस्था और अव्यवस्था पर विचार करने को विवश करती हैं। ये बाते हमे अपनी धारणाओ पर विचार करने को विवश करती है। फिर, व्यवस्था के बारे मे अपनी रूढ़ धारणाए बनाते हुए हम इस अत्यन्त विशाल ब्रह्माण्ड पर सम्पूर्ण रूप से विचार करने की उपेक्षा कर देते है, जिसमे हमारी पृथ्वी और उस पर जीवन और हम मानवो का महत्व इस पृथ्वी के समस्त समुद्र तटो पर बिखरी हुई रेत मे से उसके एक कण से भी कम है। यह दिखाई पड़ता है कि रूढ़ धारणाए बनाने वाले अधिकांश मानवो की सोच व्यापक नही है।
सत्य तो यह है कि मनुष्य अपनी स्वतंत्र इच्छा रखता है। अन्य जीवित प्राणी भी अपनी चेतना और बुद्धि के स्तर के अनुसार कम अथवा अधिक स्वतंत्र इच्छा रखते है। यह एक अलग विचार का विषय है कि मस्तिष्क अथवा तंत्रिका तंत्र मे यह स्वतंत्र इच्छा कैसे पैदा होती है - इसके पीछे सृष्टि के कौन-कौन से नियम होते हैं और यह इच्छा कैसे-कैसे निर्धारित होती है ! मनुष्य अपनी इस स्वतंत्र इच्छा को परिस्थितियो के अनुसार पूर्ण कर पाता है, नही कर पाता है अथवा कम या अधिक कर पाता है। ये परिस्थितिया अनेक कारको पर निर्भर करती है। मनुष्य के विभिन्न कार्यो के परिणाम विभिन्न अनुपातो मे निश्चित और अनिश्चित होते है। इसके अनेक कारण होते है। क्वान्टम भौतिकी मे हम कुछ कारणो को देख भी चुके है। इसी कारण कभी-कभी कम परिश्रम करके भी एक बेहतर परिणाम प्राप्त किया जा सकता है और विशेष परिश्रम के बाद भी मनोवांछित परिणाम नही मिल सकता है। इसी कारण यह संभव है कि किसी निर्दोष को कोई कष्ट उठाना पड़ जाए और किसी दोषी को कष्ट न उठाना पड़े। हमने देखा था कि यह संसार निश्चितताओ और अनिश्चितताओ का घर है - यह संभावनाओ का संसार है। इन संभावनाओ की कुछ हद तक गणना की जा सकती है, जैसे हम क्वान्टम भौतिकी मे करते है यद्यपि सूक्ष्म ब्रह्माण्ड के गणना करने के वे तरीके दीर्घ ब्रह्माण्ड के गणना करने के तरीको से कुछ अन्तर रखते हुए होते है। इसके अतिरिक्त कार्य-कारण संबंध होता है, लेकिन कार्यो के परिणाम मे निश्चितता और अनिश्चितता के पुट होते है। इन बातो को हम क्वान्टम भौतिकी मे देख चुके है।
मनुष्य की स्वतंत्रता पर मै दो शब्द यह कहना चाहूंगा कि मनुष्य के एक समूह के रूप मे कृत्यो को काफी हद तक समझा जा सकता है। इन बातो को हम समाजशास्त्र मे कुछ हद तक पढ़ते भी है। लेकिन एक अकेले मनुष्य की इच्छा की गणना करना अथवा अनुमान लगाना बहुत कठिन है। इस कठिनाई के अपने कारण है और यह निश्चितता और अनिश्चितता के तमाम नियमो को दिखाते है।
यदि यहां कोई अनिश्चितता नही होती और हर कार्य और उसका परिणाम कार्य-कारण संबंध के अनुसार पूर्ण निश्चितता से होता, तो मनुष्य की स्वतंत्र इच्छा ही नही होती और तब ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति से ले कर उसके अंत तक हर कार्य पहले से ही पूर्ण निश्चित होता। तब ब्रह्माण्ड का सबसे पहला कार्य अगले निश्चित कार्य का कारण बनता और वह कार्य उससे अगले निश्चित कार्य का कारण। लेकिन वास्तव मे ऐसा नही है। हां, ब्रह्माण्ड पूरी तरह अनिश्चित भी नही है। यदि ऐसा होता तो सार्वभौमिक प्राकृतिक नियम अस्तित्व मे नही रह पाते। यदि कार्य-कारण संबंध का कोई महत्व नही होता, तो Determinism जैसी चीज का कोई अस्तित्व नही होता और यह ब्रह्माण्ड पूर्ण अव्यवस्था मे होता। लेकिन ऐसा नही है। वास्तव मे सूक्ष्म ब्रह्माण्ड मे अनियमिताए और अनिश्चितताए अधिक प्रभावी होती है और वृहद् ब्रह्माण्ड मे निश्चितताए, लेकिन दोनो ही जगह विभिन्न अनुपातो मे दोनो का मिश्रण होता है।
ब्रह्माण्ड मे व्याप्त अनिश्चितताओ की कुछ हद तक निश्चित नियमो से गणना भी की जा सकती है। यदि क्वान्टम फिजिक्स के अनुसार ब्रह्माण्ड मे अनिश्चितताए है तो हम उन अनिश्चितताओ को भी कुछ नियमो से कुछ हद तक जान सकते है। हम नाभिक के चारो ओर घूमते हुए एक इलेक्ट्रॉन के बादल मे इलेक्ट्रॉन की सबसे अधिक संभावित स्थिति की गणना कर सकते है। यदि इलेक्ट्रॉन की स्थिति और संवेग मे एक अनिश्चितता है तो यह भी एक निश्चित नियम है। जैसा कि मैने पहले बताया था, इन अनिश्चितताओ का एक निश्चित गुणनफल होता है जो प्लैंक नियतांक से संबंधित होता है। ये बाते निश्चितता मे अनिश्चितता और अनिश्चितता मे कुछ हद तक निश्चितता की ओर संकेत करती है।
हमने इस श्रृंखला की पिछली कड़ियो मे देखा था कि पूरी तरह निश्चित समझे जाने वाले नियमो के मूल मे भी अनिश्चितता होती है अथवा हो सकती है। हमने यह भी देखा था कि हम अपने कार्य की सरलता के लिए अनेक बातो को सरल रूप मे अथवा मोटे रूप मे बोल देते है, हम उनकी गहराई मे न जा कर उस चीज को लेते है जो हमारे कार्य को सरलता से समझा सकती है। हम इस बात को छोड़ देते है कि किसी गतिशील फुटबॉल मे भी तरंग के गुण होते है और हमे उसके संवेग और स्थान मे अनिश्चितताओ को देखना चाहिए। हम उनके नियमो को एक सरल रूप मे देखते और बोलते है। इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के समय हुए 'बिग बैंग' के बाद शिशु ब्रह्माण्ड मे ऊर्जा और द्रव्य का जो थोड़ा सा असमान वितरण हुआ था, और जिसने बाद मे गैलेक्सीज के विकास मे सहायता प्रदान की, वह 'क्वान्टम फ्लक्चुएशन्स' के कारण अव्यवस्थित रूप मे ही हुआ था, लेकिन ब्रह्माण्ड के विकास मे उन सब बातो को कुल मिला कर स्थूल रूप मे एक व्यवस्था ही बोल दिया जाता है।
इन सब बातो को देखते हुए मै यह कह सकता हूं कि ब्रह्माण्ड पूरी तरह निश्चित और व्यवस्थित नही है। इसमे अव्यवस्था का पुट है। यह व्यवस्थाओ और अव्यवस्थाओ का मिश्रण है। लेकिन हम इन सब व्यवस्थाओ और अव्यवस्थाओ को मिला कर ही एक व्यवस्था बोलते है। हम इन सब अनियमितताओ, अनिश्चितताओ, अव्यवस्थाओ और नियमितताओ, निश्चितताओ और व्यवस्थाओ को ही कुल मिला कर एक व्यवस्था का नाम देते है। हम मानव पर होते अत्याचार, अन्याय, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, असत्य और उसका हित करने वाले भले कार्य, ईमानदारी, सेवा, परोपकार, उसके अच्छे कार्यो के लिए मिलने वाले अथवा न मिलने वाले पुरस्कार, उसके गलत कार्यो के लिए मिलने वाले अथवा न मिलने वाले दंड और सत्य आदि सब चीजो को मिला कर ही एक व्यवस्था बोलते है। हम इलेक्ट्रॉन की स्थिति और संवेग मे अनिश्चितता और एक लिमिटिंग स्पीड की निश्चितता को ही व्यवस्था बोलते है। हम प्रकृति के मूलभूत नियमो की निश्चितताओ और व्यवस्थाओ और उनके मूल मे व्याप्त क्वान्टम फिजिक्स की अनिश्चितताओ और अव्यवस्थाओं को ही एक व्यवस्था बोलते है। हम अपनी सब अच्छाइयो और कमियो के साथ इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की कार्यशैली को एक व्यवस्था बोलते है। इससे हमे बोलने मे वैसी ही आसानी भी होती है, जैसी तब होती है जब हम एक फुटबॉल की गति को पूरा सत्य न होने के बावजूद केवल क्लासिकल फिजिक्स के नियमो से समझाते है। यह व्यवस्था कितनी अच्छी है, कितनी बुरी है, ऐसी व्यवस्था क्यो है, क्या इसका कोई प्रयोजन है, यहां जो नियम है, वह वैसे ही क्यो है - उनसे अंतर रखते हुए क्यो नही है, क्या किसी अन्य ब्रह्माण्ड मे ये नियम यहां से अंतर रखते हुए होगे, क्या वहां की व्यवस्था यहां की व्यवस्था से अंतर रखते हुए होगी - ये अलग विचार के विषय है।
कुल मिला कर इन बातो को देखने के दो तरीके हो सकते है - या तो हम मान ले कि इस ब्रह्माण्ड के सारे कार्य एक पूर्ण रूप से न समझायी जा सकने वाली शक्ति ही कर रही है और वह सारे कार्य योजनाबद्ध और व्यवस्थित रूप से कर रही है और हम ब्रह्माण्ड के हर कार्य को एक व्यवस्था का नाम दे दे, अथवा हम यह समझने का प्रयास करे कि यहां क्या चीज़ व्यवस्थित है और क्या अव्यवस्थित, इसके लिए हम निरीक्षण करे, परीक्षण करे, प्रयोग करे, विचार करे और निष्कर्ष निकाले। हम इन बातो की गहराई मे जाए और इसे सूक्ष्मता से समझने का प्रयास करे। यह हमारे ऊपर है कि हम इन दोनो मे से किस मार्ग को अपनाना चाहते है।
यह आवश्यक नही है कि हर विचार, हर दार्शनिक विचार, हर मत या विज्ञान का हर नियम सदैव सही अथवा पूर्ण सही ही हो। उनमे कमियो और सुधार की संभावनाए होती है। इस विषय मे हमारा मन खुला होना चाहिए। हमे अपनी समीक्षा करने को तैयार रहना चाहिए। यह हमारे ऊपर है कि उस समीक्षा मे हम तथ्यो से प्राप्त वैज्ञानिक और तार्किक निष्कर्षो को माने अथवा अन्य को। यही पर हमारी बुद्धिमत्ता, विचारशीलता और सही निर्णय लेने की क्षमता सामने आती है।
384 - 322 ईसापूर्व एक ग्रीक दार्शनिक अरस्तु (Aristotle) हुआ था। उसे एथेंस, बल्कि पूरे यूनान, का एक बहुत महान दार्शनिक माना गया है। उसके गुरु प्लाटो और उनके भी गुरु सुकरात ने ज्ञान-विज्ञान और दर्शन के सम्बन्ध मे बहुत काम किया था। उसने ज्ञान-विज्ञान के अनेक क्षेत्रो के सिद्धान्त दिए थे। वह फिलिप द्वितीय के पुत्र सिकंदर (Alexander ) का गुरु भी रहा था। लगभग 2000 वर्ष तक उसके सिद्धान्तो को किसी ने चुनौती नही दी, किसी ने उसके सिद्धांतो पर समीक्षात्मक दृष्टि से पुनर्विचार करने का प्रयत्न भी नही किया। यदि किसी ने ऐसा प्रयत्न किया भी और उसके विचारो मे अरस्तु के विचारो से अंतर हुआ, तो उसकी बात सुनी और मानी नही गई। ऐसा इसलिए हुआ क्योकि वह 'महान' अरस्तु के विचारो के विरुद्ध थी और उसके विचारो को सम्पूर्ण सत्य माना जाता था। यह कार्य कुछ 'धर्म-ग्रंथो' के साथ भी हुआ था। अरस्तु ने पृथ्वी को ब्रह्माण्ड के बीच मे स्थित और स्थिर कहा, उसने कहा कि ऊंचाई से एक भारी और एक हल्का पत्थर एक साथ गिराने पर भारी पत्थर पहले नीचे पहुचेगा। अब हम जानते है कि अरस्तु की ये और अनेक अन्य धारणाए गलत थी। अंततः लोगो ने स्वतंत्र विचार किया, प्रयोग किए, सत्य को जाना और एक सही दिशा मे आगे बढ़े।
अपने इतिहास से शिक्षा लेते हुए हमे इन बातो का ध्यान रखना चाहिए। हम गलत हो सकते है लेकिन हमारी सोच तार्किक और तथ्य-परक होनी चाहिए। अपनी बात गलत दिखाई पड़ने पर हमे उसे खुले मन से स्वीकार करना भी आना चाहिए। 'असतो मा सद्गमय' का मंत्र हमारा मूल-मंत्र होना चाहिए। ऐसा करने पर ही हम समझ पाएगे कि यह ब्रह्माण्ड वास्तव मे कितना व्यवस्थित और अव्यवस्थित है। हमने इस श्रृंखला मे ब्रह्माण्ड को उसके निश्चित नियमो और उसमे विद्यमान अनिश्चितताओ, क्वांटम नियमो, ऊष्मागतिकी के दूसरे नियम और समाज मे दिखाई पड़ने वाली व्यवस्थाओ और अव्यवस्थाओ के आधार पर देखा और समझा। अब हम इस विषय का निष्कर्ष कैसे निकालते है, यह हमारी सोच पर निर्भर करता है।