रडार (Radar) वस्तुओं का पता लगाने वाली एक प्रणाली है जो सूक्ष्मतरंगों(माइक्रोवेव) तथा रेडियो तरंगों का उपयोग करती है। इसकी सहायता से गतिमान वस्तुओं जैसे वायुयान, जलयान, मोटरगाड़ियों आदि की दूरी (परास), ऊंचाई, दिशा, चाल आदि का दूर से ही पता चल जाता है। इसके अलावा मौसम में तेजी से आ रहे परिवर्तनों (weather formations) का भी पता चल जाता है। ‘रडार’ (RADAR) शब्द मूलतः एक संक्षिप्त रूप है जिसका प्रयोग अमेरिका की नौसेना ने 1940 में ‘रेडियो डिटेक्शन ऐण्ड रेंजिंग’ (radio detection and ranging) के लिये प्रयोग किया था। बाद में यह संक्षिप्त रूप इतना प्रचलित हो गया कि अंग्रेजी शब्दावली में आ गया और अब इसके लिये बड़े अक्षरों (कैपिटल) का इस्तेमाल नहीं किया जाता।
रडार का आविष्कार टेलर व लियो यंग (Teller and Liyo ying (यू.एस.ए.) ने वर्ष 1922 में किया था। यह यंत्र आकाश में आने-जाने वाले वायुयानों के संचालन और उनकी स्थिति ज्ञात करने के काम आता है। रडार, एक यंत्र है जिसकी सहायता से रेडियो तरंगों का उपयोग दूर की वस्तुओं का पता लगाने में तथा उनकी स्थिति, अर्थात् दिशा और दूरी, ज्ञात करने के लिए किया जाता है। आँखों से जितनी दूर दिखाई पड़ सकता है,
रडार द्वारा उससे कहीं अधिक दूरी की चीजों की स्थिति का सही पता लगाया जा सकता है। कोहरा, धुंध, वर्षा, हिमपात, धुँआ अथवा अँधेरा, इनमें से कोई भी इसमें बाधक नहीं होते। किंतु रडार आँख की पूरी बराबरी नहीं कर सकता, क्योंकि इससे वस्तु के रंग तथा बनावट का सूक्ष्म ब्योरा नहीं जाना जा सकता, केवल आकृति का आभास होता है। पृष्ठभूमि से विषम तथा बड़ी वस्तुओं का, जैसे समुद्र पर तैरते जहाज, ऊँचे उड़ते वायुयान, द्वीप, सागरतट इत्यादि का, रडार द्वारा बड़ी अच्छी तरह से पता लगाया जा सकता है। सन् 1886 में रेडियो तरंगों के आविष्कर्ता, हाइनरिख हेर्ट्स ने ठोस वस्तुओं से इन तरंगों का परावर्तन होना सिद्ध किया था। रेडियो स्पंद (pulse) के परावर्तन द्वारा परासन, अर्थात् दूरी का पता लगाने, का कार्य सन् 1925 में किया जा चुका था और सन् 1939 तक रडार के सिद्धांत का प्रयोग करने वाले कई सफल उपकरणों का निर्माण हो चुका था, किंतु द्वितीय विश्वयुद्ध में ही रडार का प्रमुख रूप से उपयोग आरंभ हुआ।
स्थिति निर्धारण की पद्धति
रडार से रेडियो तरंगें भेजी जाती हैं और दूर की वस्तु से परावर्तित होकर उनके वापस आने में लगने वाले समय को नापा जाता है। रेडियो तरंगों की गति लगभग तीन लाख किमी प्रतिसेकंड(1,86,999 मील प्रति सेकंड) है, इसलिए समय ज्ञात होने पर परावर्तक वस्तु की दूरी सरलता से ज्ञात हो जाती है। रडार में लगे उच्च दिशापरक ऐंटेना (antenna) से परावर्तक, अर्थात् लक्ष्य वस्तु, की दिशा का ठीक ठीक पता चल जाता है। दूरी और दिशा मालूम हो जाने से वस्तु की यथार्थ स्थिति ज्ञात हो जाती है। रडार का ट्रांशमिटार (transmitter) नियमित अंतराल पर रेडियो ऊर्जा के क्षणिक, किंतु तीव्र, स्पंद भेजता रहता है। प्रेषित स्पंदों के अंतरालों के बीच के समय में रडार का ग्राही (receiver), यदि बाहरी किसी वस्तु से परावर्तित होकर तरंगें आवें तो उनकी ग्रहण करता है। परावर्तन होकर वापस आने का समय विद्युत् परिपथों द्वारा सही सही मालूम हो जाता है और समय के अनुपात में अंकित सूचक से दूरी तुरंत मालूम हो जाती है। एक माइक्रोसेकंड (सेकंड का दसलाखवाँ भाग) के समय से 164 गज और 19.75 माइक्रोसेकंड से 1 मील की दूरी समझी जाती है। कुछ रडार 199 मील दूर तक की वस्तुओं का पता लगा लेते हैं। अच्छे यंत्रों से दूरी नापने में 15 गज से अधिक की भूल नहीं होती और दूरी के कम या अधिक होने पर इस नाप की यथार्थता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। लक्ष्य वस्तु की दिशा अथवा उसकी ऊँचाई का कोण एक अंश के 9.96 भाग तक परिशुद्ध नापा जा सकता है। रडार के ग्राही यंत्र के मानीटर पर वस्तु की स्थिति स्पष्ट दिखाई पड़ती है।
दिशा का ज्ञान
लक्ष्य का पता लगाने के लिए ऐंटेना को घुमाते, या आगे पीछे करते हैं। जब ऐंटेना लक्ष्य की दिशा में होता हैं, तब लक्ष्य का प्रतिरूप मानीटर पर प्रकट होता है। इस प्रतिरूप को पिप (Pip) कहते हैं। पिप सबसे अधिक स्पष्ट तभी होता है, जब ऐंटेना सीधे लक्ष्य की दिशा में होता है। रडार के ऐंटेना अत्युच्च दिशापरक होते हैं। ये रेडियोतरंगों को सकरी किरणपुंजों में एकाग्र करते हैं तथा यंत्र में लगे विशेष प्रकार के परावर्तक इन किरणपुंजों को सघन बनाते हैं। रडार के कार्य के लिए अति लघु तरंग दैर्ध्य वाली, अर्थात् अत्युच्च आवृत्तियों की, तरंगों का उपयोग होता है। इन सूक्ष्म तरंगों के उत्पादन के लिए मल्टिकैविटी मैग्नेट्रॉन (Multicavity Magnetron) नामक उपकरण आवश्यक है, जिसके बिना आधुनिक रडार का कार्य संभव नहीं है।
रडार के अवयव
प्रत्येक रडार के अवयो के कार्य निम्नलिखित है-
- मॉडुलेटर (modulator) से रेडियो-आवृत्ति दोलित्र (radio frequency oscillator) को दिए जाने वाली विद्युत् शक्ति के आवश्यक विस्फोट प्राप्त होते हैं;
रेडियो-आवृत्ति दोलित्र उच्च आवृत्ति वाली शक्ति के उन स्पंदों को उत्पन्न करता है जिनसे रडार के संकेत बनते हैं - ऐंटेना द्वारा ये संकेत(स्पंद) आकाश में भेजे जाते हैं और ऐंटेना ही उन्हें वापसी में ग्रहण करता है
- ग्राही (रीसीवर)वापस आनेवाली रेडियो तरंगों का पता पाता है
- सूचक (indicator) रडार परिचालक को रेडियो तरंगों द्वारा एकत्रित की गई सूचनाएँ देता है।
- तुल्यकालन (synchronisation) तथा परास की माप के अनिवर्य कृत्य मॉडुलेटर तथा सूचक द्वारा संपन्न होते हैं। यों तो जिस विशेष कार्य के लिए रडार यंत्र का उपयोग किया जाने वाला है, उसके अनुरूप इसके प्रमुख अवयवों को भी बदलना आवश्यक होता है।
रडार के उपयोग
- हवाई यातायात नियंत्रण
- एंटी मिसाइल सिस्टम्स
- वायु रक्षा प्रणाली
- मौसम की भविष्यवाणी
- समुद्री शिल्प और विमान नेविगेशन
रडार के कारण युद्ध में सहसा आक्रमण प्राय: असंभव हो गया है। इसके द्वारा जहाजों वायुयानों और रॉकेटों के आने की पूर्वसूचना मिल जाती है। धुंध, अँधेरा आदि इसमें कोई बाधा नहीं डाल सकते और अदृश्य वस्तुओं की दूरी, दिशा आदि ज्ञात हो जाती हैं। वायुयानों पर भी रडार यंत्रों से आगंतुक वायुयानों का पता चलता रहता है तथा इन यंत्रों की सहायता से आक्रमणकारी विमान लक्ष्य तक जाने और अपने स्थान तक वापस आने में सफल होते हैं। केंद्रीय नियंत्रक स्थान से रडार के द्वारा 299 मील के व्यास में चतुर्दिक्, ऊपर और नीचे, आकाश में क्या हो रहा है, इसका पता लगाया जा सकता है। रात्रि या दिन में समुद्र के ऊपर निकली पनडुब्बी नौकाओं का, या आते जाते जहाजों का, पता चल जाता है तथा दुश्मन के जहाजों पर तोपों का सही निशाना लगाने में भी इससे सहायता मिलती है।
शांति के समय में भी रडार के अनेक उपयोग हैं। इसने नौका, जहाज, या वायुयान चालन को अधिक सुरक्षित बना दिया है, क्योंकि इसके द्वारा चालकों को दूर स्थित पहाड़ों, हिमशैलों अथवा अन्य रुकावटों का पता चल जाता है। रडार से वायुयानों को पृथ्वी तल से अपनी सही ऊँचाई ज्ञात होती रहती है तथा रात्रि में हवाई अड्डों पर उतरने में बड़ी सहूलियत होती है। 19 जनवरी, 1946 ई. को संयुक्त राज्य अमरीका के सैनिक संकेत दल (Army Signal Corps) ने रडार द्वारा सर्वप्रथम चंद्रमा से संपर्क स्थापित किया। रेडियो संकेत को चंद्रमा तक आने जाने में 4,59,999 मील की यात्रा करनी पड़ी और 2.4 सेकंड समय लगा।
रडार से बचाव
स्टील्थ टेक्नालाजी
स्टील्थ विमान अदृश्य कैसे हो जाते हैं, यह जानने से पहले यह जानना जरूरी है कि पृथ्वी स्थित वायु यातायात नियंत्रण केंद्र विमान की स्थिति का पता कैसे लगाते हैं। इसके लिए दो तरह की प्रणाली का प्रयोग किया जाता है। पहला यह कि सभी व्यावसायिक व यात्री विमानों में एक ट्रांसपोर्डर लगाया जाता है, जो विमानों के पल-पल की स्थिति की सूचना धरती पर के वायु यातायात नियंत्रण केंद्रों तक भेजता है। दूसरी स्थिति में धरती पर लगे रडार आकाश में चारों तरफ रेडियो तरंगें प्रसारित करते रहते हैं। जब ये तरंगे विमान से टकराकर परावर्तित होती हैं। रडार इन्हें पुन: रिसीव करता है, जिससे उसे विमान की स्थिति का पता चलता है।
यह सारी प्रक्रिया लगभग वैसी ही होती है, जैसे आंखों से किसी वस्तु को देखने पर होती हैं। बस इस प्रक्रिया में आंखों की जगह रडार व प्रकाश की जगह रेडियो तरंगें होती हैं। इन्हीं रडारों को चकमा देने के लिए स्टील्थ विमान को एक खास तरह की धातु से पेंट किया जाता है, जो रेडियो तरंगो को अवशोषित कर लेता है, जिससे रेडियो तरंगे परावर्तित होकर वापस धरती पर नहीं आतीं। इस वजह से स्टील्थ विमान रडार से अदृश्य हो जाता है। उनका पता नहीं चलता।
आंखों से देखे जा सकते हैं ये विमान
ये खास तरह के पेंट विमान को सिर्फ रडार से ही अदृश्य कर पाने में सक्षम होते हैं। मानव आंखों से इन्हें साफ-साफ देखा जा सकता है। बशर्ते कि ये विमान मानव आंखों की देखे जाने की सीमा के भीतर हों, बीच मेंकोई अन्य बाधा न हो।
अन्य उपाय
- यदि कोई वस्तु नकली संकेत उत्पन्न करे तो उस से वास्तविक रडार संकेतो को भ्रमित किया जा सकता है, फिर वो असली वाले रडार सिग्नल से मिलकर गलत जानकारी पहुंचाएंगे या फिर रीसीवर तक पहुँच ही नहीं पाएंगे।
- यदि किसी भी हवाई जहाज या लड़ाकू विमान डिजाईन है या नुकीला है, तो संकेत विमान पर टकराकर बिखर जाते हैं, और रिसिवर तक नहीं पहुँच पाते हैं।
- यदि कोई विमान बहुत कम ऊंचाई पर है और उसके आस पास पहाड़ पेड़ पौधे और इमारते हैं, तब भी संकेत इधर उधर टकराकर ख़त्म हो जाते हैं और रीसीवर तक नहीं पहुँच पाते हैं।