चार्ल्स डार्विन : धार्मिक रूढ़िवादिता और सामाजिक अन्याय के विरुद्ध खड़ा एक मनुष्य
दुनिया के लगभग सभी धर्म-ग्रन्थों, और धार्मिक मान्यताओं, में ब्रह्माण्ड, पृथ्वी, जीवित प्राणियों और मनुष्य की उत्पत्ति का कोई दिव्य कारण (Divine Cause) बताया गया है। इन मान्यताओं के अनुसार एक अलौकिक शक्ति ने इन सब चीजों की रचना की है। इन मान्यताओं के अनुसार जीव-जन्तुओं की ये सब जातियां इसी वर्तमान रूप में उस अलौकिक शक्ति के द्वारा बनाई गई हैं और इनका स्वरूप अपरिवर्तनीय है। इन सभी मान्यताओं में परस्पर बहुत मतभेद हैं - कहीं पर सृष्टि को अब से लगभग 6,000 वर्ष पूर्व बनाया गया माना गया है और कहीं पर करोड़ों-अरबों वर्ष पहले। कहीं पर प्रथम पुरुष को Adam, कहीं पर आदम और कहीं पर कुछ अन्य माना गया है। कहीं पर एडम की पसली से ईव की रचना मानी गई है, कहीं पर किसी देवता की नाभि अथवा उसके मुख और बाहों आदि से मनुष्यों की उत्पत्ति मानी गई है, कहीं पर जमीन फाड़ कर युवावस्था में मनुष्य और जीव-जन्तुओं की उत्पत्ति की बात कही गई है तो कहीं किसी देवता के वमन, जुंओं, पिस्सुओं अथवा अन्य प्रकार से। लेकिन इनकी रचना के Divine Intervention पर सबका मत एक है।
एक समय दुनिया के लगभग सभी लोग इन मान्यताओं को मानते थे। ऐसे में किसी जीव-वैज्ञानिक, प्रकृति-विज्ञानी और विचारक द्वारा वैज्ञानिक प्रमाणों के आधार पर यह कहना कि यह विभिन्न जातियां क्रमिक विकास का परिणाम हैं और इनका स्वरूप परिवर्तनीय है, कितने साहस का कार्य रहा होगा। सभी प्रमुख धार्मिक मान्यताओं में ईश्वर द्वारा इसी रूप में विशेष रूप से रचे गए मनुष्य की अवधारणा के बीच मानव, वानरों, कपियों और कपि-मानवों के पूर्वज विभिन्न स्तरों पर एक समान होने की बात कहना, अथवा सभी जीवधारियों के पूर्वज एक समान होने की बात कहना, अब से 200 साल पहले के रूढ़िवादी युग में कितने साहस का कार्य रहा होगा! हम कॉपरनिकस, गैलीलियो और ब्रूनो का हश्र जानते हैं। इटालियन दार्शनिक जियारडानो ब्रूनो को तो चर्च की मान्यताओं के विरुद्ध बोलने के कारण चौराहे पर जीवित ही जला दिया गया था। तत्कालीन समाज का यह रुख देखते हुए भी ये बातें कहना सत्य और वैज्ञानिक प्रमाणों के प्रति कितनी निष्ठा को दिखाता है! चार्ल्स डार्विन ऐसे ही एक व्यक्ति थे।
12 फरवरी, सन् 1809 में श्र्यूसबरी, इंग्लैंड, के एक प्रख्यात चिकित्सक-परिवार में जन्मे चार्ल्स रॉबर्ट डार्विन - जिन्होंने डॉक्टरी की शिक्षा प्राप्त की थी - का रुझान प्रारम्भ से ही चिकित्सक का कार्य करने अथवा धर्माचार्य बनने की ओर न होकर प्राकृतिक वस्तुओं की ओर था। प्रारम्भ से ही डार्विन ने भू-विज्ञान, भूगर्भ-शास्त्र और प्रकृति की घटनाओं के विश्लेषण में रुचि रखी थी।
सन् 1831 में डार्विन को HMS Beagle नामक पानी के जहाज पर प्रकृति-विज्ञानी के रूप में यात्रा करने का अवसर मिला। यह यात्रा 5 साल चली। डार्विन ने इस दौरान विभिन्न स्थानों, विभिन्न द्वीप समूहों, महाद्वीपों और देशों के भूगोल, प्रकृति, पर्यावरण और जीव-जन्तुओं का गहन अध्ययन किया। उन्होंने जीव-जन्तुओं और जीवाश्मों आदि के तमाम नमूने एकत्र किए और उन नमूनों को डार्विन के नोट्स के साथ कैम्ब्रिज, इंग्लैंड, भेजा जाता रहा।
दक्षिणी अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, फ़ॉकलैंड द्वीप-समूह और इक्वाडोर के पास स्थित गालापागोस द्वीप-समूहों में डार्विन ने बहुत काम किया। ये द्वीप-समूह प्रकृतिक जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों से भरे हुए थे। युवा डार्विन ने यहां पर जन्तुओं की तमाम जातियों का अध्ययन किया और उन्होंने इस बात के बहुत से प्रमाण देखे कि कैसे जातियों में बदलाव आता है और कैसे उससे धीमे-धीमे नयी जातियां बनती हैं। अपने इस लंबे और अथक काम से उन्होंने बहुत से निष्कर्ष निकाले। इंग्लैंड लौट कर डार्विन ने बहुत से लेख लिखे, उन्होंने अनेक प्रयोग किए और धीरे-धीरे उनके मन में एक थ्योरी विकसित होनी शुरू हो गई। उन्होंने कुछ पुस्तकें भी लिखीं।
प्रसिद्ध वैज्ञानिक एल्फ्रेड रसैल वैलेस के एक शोध-पत्र से प्रभावित होकर डार्विन ने इस विषय पर गम्भीर काम करना शुरू किया कि पौधों और जन्तुओं की दिखाई पड़ने वाली ये तमाम जातियां आखिर अस्तित्व में कैसे आयीं। इस विषय में उनकी कुछ अन्य पुस्तकें भी सामने आयीं। सन् 1859 (24 नवंबर) में उनकी 'On the Origin of Species by means of Natural Selection or the Preservation of Flavoured Races in the Struggle for Life' पुस्तक सामने आयी जिसमें डार्विन ने विस्तृत निरीक्षण और निष्कर्षों से एक सिद्धान्त दिया। इस सिद्धान्त के अनुसार...
• जीव काफी अधिक संख्या में संतानें उत्पन्न करते हैं।
• इस अधिक संख्या में जीवित रहने के लिए प्राणियों में परस्पर संघर्ष (Struggle for Existence) होता है।
• जीवों में विविधताएं होती हैं। इन में कुछ विविधताएं बेहतर गुणों वाली होती हैं और कुछ खराब गुणों वाली।
• बेहतर गुणों वाले जीवों के जीवित रहने की संभावना अधिक होती है, जबकि खराब गुणों वाले जीवों के जीवित रहने की संभावना कम होती है।
• इन विभिन्न संभावनाओं के कारण जीवों के बीच 'प्राकृतिक चयन' (Natural Selection) होता है। इसे योग्यतम की उत्तरजीविता (Survival of the fittest) भी कहते हैं।
• इस प्राकृतिक चयन में बचे हुए जीवों के गुण उनकी संतति में भी जाते हैं।
• पीढ़ी दर पीढ़ी कुछ विशेष प्रकार के गुणों के इकट्ठे होते रहने, और अन्य गुणों के हटते रहने, से काफी लंबे समय में एक नयी जाति सामने आ जाती है।
सन् 1872 में डार्विन की एक अन्य पुस्तक 'The Descent of Man and Selection in Relation to Sex' सामने आयी। क्योंकि डार्विन का यह सिद्धान्त और ये विचार जातियों के निर्माण में एक दिव्य हस्तक्षेप (Divine Intervention) की आवश्यकता को नकारते थे, इसलिए धार्मिक रूढ़िवादियों ने उन पर बहुत हमले किए। उन पर चर्च द्वारा बहुत वैचारिक हमले किए गए। जनमानस में भी वही रूढ़िवादी बातें विद्यमान थीं। उन पर Heresy - ईशनिंदा - और नास्तिकता का आरोप भी लगाया गया। लेकिन डार्विन और उनके सहयोगी, इंग्लैंड निवासी और बायोलॉजिस्ट और एंथ्रोपोलॉजिस्ट थॉमस हेनरी हक्सले, ने सभी व्यंग्यों, कटूक्तियों, आरोपों और शंकाओं का समुचित उत्तर दिया। उनके उत्तर प्रमाण-आधारित थे जिनका परीक्षण किया जा सकता था, जबकि उनके विरोधियों के पास केवल अपनी धार्मिक मान्यताओं का तर्क था। बल्कि सच पूछें तो अपने ऊपर धार्मिक रूढ़िवादियों द्वारा किए गए निर्मम हमलों के कारण डार्विन ने तो दुःखी होकर चुप्पी ही ओढ़ ली थी। उनकी ओर से हक्सले ने ही अपने विरोधियों को करारे उत्तर दिए थे। इस कारण उन्हें 'डार्विन का बुलडॉग' भी कहा जाता था।
डार्विन ने निडर होकर इन विषयों पर अनेक पुस्तकें लिखीं और अपनी बातों के पक्ष में अनेकानेक लिखित प्रमाण दिए। धीरे-धीरे उनके प्रमाणों का प्रभाव विज्ञान-जगत में होने लगा और विकास का सिद्धान्त वैज्ञानिक समुदाय का एक मान्य सिद्धान्त बन गया। यद्यपि उस समय तक यह स्पष्ट नहीं था कि प्राणियों में अन्तर क्यों होते हैं, कौन से अन्तर अगली पीढ़ी में जाते हैं और ये अन्तर अगली पीढ़ी में कैसे जाते हैं। जीन्स पर आधुनिक अध्ययन के बाद इस विषय में अनेक बातें बहुत स्पष्ट हुई हैं। इस विषय में अब विज्ञान की विभिन्न विधाओं और शाखाओं में बहुत काम हुआ है और विकास का सिद्धान्त विज्ञान-जगत में एक सर्वमान्य सिद्धान्त है। उस समय डार्विन केवल यह बता पाए कि जीवों में अंतर होते हैं। वह यह नहीं बता पाए कि ये अंतर क्यों होते हैं और अगली पीढ़ी में कैसे जाते हैं। अब हम इन सब बातों को भली प्रकार जानते हैं। इस समय विकासवाद के विरोधी इस सिद्धान्त पर जो-जो आपत्तियां उठाते हैं, उन सब के समुचित और प्रामाणिक उत्तर विज्ञान के पास उपलब्ध हैं।
यद्यपि डार्विन के पहले भी अनेक लोगों ने विकास के सिद्धान्त दिए थे, जैसे - जीन बैपाटिस्ट डी लैमार्क, लेकिन डार्विन का सिद्धान्त सबसे अधिक तर्कसंगत था। डार्विन ने ठोस प्रमाणों के साथ उद्विकास के सिद्धान्त को भौतिकवादी आधार प्रदान करते हुए यह सिद्ध किया था कि जीवन और जातियों का विकास भौतिक नियमों के अन्तर्गत होता है, इसके लिए किसी अप्राकृतिक तरीकों अथवा ईश्वरीय हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं होती है। यह विज्ञान के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण छलांग थी जिसने इंसान को ईश्वर की प्रिय संतान, और अनेक धार्मिक मान्यताओं के अनुसार जिनमें ईश्वर ने मानव को अपने रूप में बनाया था, की बजाय प्रकृति व प्राणी-जगत के ही एक अंग के रूप में स्थापित कर दिया था। वैसे भी यदि हम विचार करें तो इस ब्रह्माण्ड के खरबों-खरब ग्रहों पर जीवन हो सकता है, उनमें केवल मानव को ही ईश्वर का प्रिय पुत्र कैसे कहा जा सकता है?
निम्न-वर्गीय प्राणियों से उच्च-वर्गीय प्राणियों के विकास, और इसी प्रकार मानव के विकास, के अनेकानेक प्रमाण मिलते हैं। इनमें जीवाश्म (Fossils), जातियों के लिंक्स, अवशेषी अंग (Vestigial organs), बायोकेमिस्ट्री, जेनेटिक्स, आनुवंशिकता, म्यूटेशन्स, वंशों के प्रमाण, जीव-जातियों का भौगोलिक डिस्ट्रीब्यूशन, शरीर-रचना, शरीर की कार्य-विधि (Physiology), आण्विक जीव-विज्ञान, शरीर का आकृति-विज्ञान, भ्रूण-विज्ञान, Biogeography, एन्थ्रोपोलॉजी और सीधे निरीक्षण जैसे अनेक प्रमाण, और विज्ञान की अनेक अन्य शाखाओं के प्रमाण, सामने हैं।
लेकिन डार्विन का योगदान केवल इतना ही नहीं था। जब डार्विन ने अपनी दोनों प्रसिद्ध किताबें - अर्थात् ओरिजिन ऑफ स्पीशीज और डीसेंट ऑफ मैन - लिखी थीं तब लगभग पूरी दुनिया में यूरोपियन उपनिवेशवाद का बोलबाला था। अफ्रीका, एशिया और अमेरिका आदि अनेक भूभाग यूरोप के विभिन्न देशों के उपनिवेश बने हुए थे। उस समय तक संयुक्त राष्ट्र अमेरिका जैसे कुछ देश भले ही औपनिवेशिक दासता से मुक्त हो चुके थे लेकिन दास-प्रथा वहां पर तब भी विद्यमान थी। इन देशों के श्वेत शासक नस्ल के आधार पर श्वेत जाति को दूसरी जातियों की अपेक्षा श्रेष्ठ मानते थे। आगे चल कर 20वीं शताब्दी में हमने देखा था कि किस प्रकार जर्मनी का तानाशाह हिटलर स्वयं को आर्य जाति का और श्रेष्ठ और यहूदियों को निम्न जाति का मानता था। इस कारण उसने नस्लीय नरसंहार करते हुए 60 लाख यहूदियों को यंत्रणापूर्वक मृत्यु दी थी।
अपने अवलोकनों और पर्यवेक्षणों द्वारा जब डार्विन अपने सिद्धान्तों को एक रूपरेखा दे रहे थे, तब वह वैज्ञानिक रूप से इस निर्णय पर पहुंचे थे कि किसी भी नस्ल के इंसान एक ही साझा पूर्वज से विकसित हुए हैं और नस्ल के आधार पर कोई भी किसी से श्रेष्ठ अथवा कम नहीं है, और न ही कोई जाति किसी दूसरी जाति को गुलाम बना कर रखने की अधिकारी है। डार्विन दास-प्रथा के भी आलोचक थे। डार्विन ने अपने इन विचारों को अमेरिकी वनस्पति विज्ञानी असा ग्रे को लिखे पत्र में प्रकट किया था। हम कह सकते हैं कि न केवल विज्ञान के क्षेत्र में बल्कि सामाजिक समानता के क्षेत्र में भी डार्विन ने अपनी गरिमामयी उपस्थिति दर्ज करवाई थी।
क्योंकि डार्विन ने बाइबल, चर्च के सिद्धान्तों और धार्मिक रूढ़िवादिता के विरुद्ध बोला था, उन्होंने वैज्ञानिक विचारधारा को पुष्ट करने का कार्य किया था और उसके प्रमाण दिखाने का साहस किया था, इसलिए उनको बहुत कष्ट उठाने पड़े। लेकिन वह अपने मार्ग से डिगे नहीं। रूढ़ियों और अज्ञान के विरुद्ध मानव-इतिहास में अनेक व्यक्ति खड़े हुए हैं, सत्य और ज्ञान के प्रति उनका योगदान रहा है। उन सब महान व्यक्तियों के कंधों पर हम लोग खड़े हैं। चार्ल्स रॉबर्ट डार्विन भी उनमें से एक थे। कोई भी व्यक्ति, ग्रन्थ अथवा सिद्धान्त गलत हो सकता है। उनको समझा जाता है और सुधार किया जाता है, लेकिन वास्तविक महत्व हमारे मन के खुले होने का है, अविचारपूर्ण रूढ़ियों से न बंधे होने का है। जो व्यक्ति मन को खोल कर सोच सकता है, वह वास्तविक रूप से महान व्यक्ति होता है - वह मानव-जाति को आगे ले जाने का कार्य करता है। मैं उन सभी व्यक्तियों और डार्विन को उनके साहस और सत्य के मार्ग के अनुसरण के लिए नमन करता हूं। यहां पर इस बात का उल्लेख करना भी उचित रहेगा कि डार्विन की पत्नी एम्मा डार्विन - जो उनकी चचेरी बहन भी थीं - ने डार्विन को उनके विचारों में बहुत सहयोग दिया। अपने पति के मानसिक कष्टों के बीच वह सदैव एक मजबूत संबल बन कर उनके साथ खड़ी रहीं। विज्ञान और समाज के क्षेत्र में एम्मा का योगदान भी कम नहीं आंका जा सकता है। 19 अप्रैल सन् 1882 में डार्विन की मृत्यु हो गई थी।
यहां पर मैं दो शब्द एल्फ्रेड रसैल वैलेस के लिए भी कहना चाहूंगा। 8 जनवरी, सन् 1823 को जन्मे, इंग्लैंड निवासी, वैलेस, डार्विन के समकालीन थे और अभी दो वर्ष पहले उनकी जन्म-द्विशताब्दी थी। वैलेस भी डार्विन के समान एक प्रकृति विज्ञानी, खोजकर्ता, भूवैज्ञानिक, मानव-वैज्ञानिक, जीव-वैज्ञानिक, चित्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, समाज सुधारक और वातावरण विज्ञानी (Environmentalist) थे। इसके अतिरिक्त उन्होंने दूसरे ग्रहों पर जीवन की सम्भावना पर भी काम किया था। अथक परिश्रम के बाद उन्होंने स्वतन्त्र रूप से Evolution through Natural Selection का सिद्धान्त दिया था। डार्विन और इनका परस्पर अनेक क्षेत्रों में सहयोग था और अब विकास की यह थ्योरी Darwin Wallace theory of Evolution कहलाती है। 1852 की उनकी समुद्री यात्रा में उनके जहाज में आग लग गई। उसमें उनकी जान बहुत मुश्किल से बच पायी और दो वर्ष के परिश्रम से एकत्र किए गए उनके लगभग सभी नमूने और नोट्स जल गये। इसके बावजूद उन्होंने लौट कर परिश्रम-पूर्वक अनेक लेख लिखे। विज्ञान-जगत उनका भी ऋणी है।