मानव-शरीर की संरचना
मानव-शरीर एक बहुत जटिल संरचना है। यह एक बहुत विकसित फैक्ट्री है। यदि हम प्रारम्भिक एक कोशिकीय जीवों से आगे की यात्रा को देखें तो हम पाते हैं कि किस प्रकार क्रमशः उन कोशिकाओं में विकास हुआ है और किस प्रकार उन्होंने एक साथ रहना 'सीख' कर बहुकोशिकीय जीवों की रचना की है और उनमें अपने शरीर और बुद्धि के कारण मानव सबसे ऊपर के पायदान पर खड़ा है।
इस बात के बहुत अधिक प्रमाण मिलते हैं कि किस प्रकार विभिन्न निम्न जीवों से उच्च जीवन की उत्पत्ति विकास-क्रम में क्रमशः हुई है और पृथ्वी के 4.6 अरब वर्ष के इतिहास में मानव अपेक्षाकृत बिल्कुल अभी के समय की उत्पत्ति है। यदि हम कोशिकाओं के विकास को ही देखें तो हम पाएंगे कि किस प्रकार बिना केन्द्रक वाली कोशिकाओं - प्रोकैरियॉट्स से केन्द्रक वाली कोशिकाओं - यूकैरियॉट्स - का विकास हुआ था। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि प्रोकैरियॉट्स इस दुनिया से समाप्त हो गई हों। वह बैक्टीरिया के रूप में अभी भी विद्यमान हैं। इसके अपने वैज्ञानिक कारण होते हैं। फिर हमारी कोशिकाओं के पॉवर हाउस - माइटोकॉन्ड्रिया - का विकास दो विभिन्न प्रकार की कोशिकाओं की सहजीविता (सिम्बायोसिस) के कारण हुआ था इसीलिए माइटोकॉन्ड्रिया का अपना अलग डीएनए होता है जो मुख्य कोशिका से अलग होता है। ऐसा ही वनस्पति कोशिका के क्लोरोप्लास्ट्स के साथ हुआ था। कोशिकाओं के विभिन्न अंगकों के विकास के अनेक प्रमाण मिलते हैं। एक यूकैरियोटिक कोशिका जीवन के प्रारम्भिक अणुओं की अपेक्षा जीवन का उतना ही उन्नत रूप है जितना एक यूकैरियॉटिक कोशिका की अपेक्षा एक मानव। बल्कि कहना चाहिए कि एक यूकैरियॉटिक कोशिका एक प्रोकैरियॉटिक कोशिका के मुकाबले जीवन का उतना ही उन्नत रूप है जितना एक यूकैरियॉटिक कोशिका के मुकाबले एक मानव। और जीवन के प्रारम्भिक अणुओं के मुकाबले एक प्रोकैरियॉटिक कोशिका भी जीवन का इतना ही उन्नत रूप है।
जो व्यक्ति विकास-क्रम के आधुनिक विज्ञान के प्रमाणों की ओर से अपनी आंखें बंद रखना चाहता है और अपनी कुछ रूढ़ मान्यताओं पर ही स्थिर रहना चाहता है, वह अंततः अपनी और मानवता के ज्ञान की ही हानि करेगा। हमें ज्ञान को पूर्व और पश्चिम में नहीं बांटना चाहिए। हमें ज्ञान को, धारणाओं को, मान्यताओं को, केवल सत्य और असत्य में, श्रेष्ठ और निकृष्ट में बांटना चाहिए। हमें सदैव एक श्रेष्ठ ज्ञान की ओर बढ़ना चाहिए। उसके लिए हमारी कसौटी विवेकपूर्ण होनी चाहिए।
ईश्वर के सभी कार्य भौतिक नियमों के द्वारा ही होते हैं। यहां पर हम ईश्वर को बीच में नहीं भी ला सकते हैं और यह कह सकते हैं कि इस ब्रह्माण्ड के सभी कार्य भौतिक नियमों के द्वारा होते हैं। हां, हम ईश्वर को अंतिम निमित्त कारण मान सकते हैं। यद्यपि इसकी आवश्यकता न होने के भी अपने कारण हैं।
हमारे शरीर में मस्तिष्क इसका राजा होता है। आधुनिक विज्ञान की यह बहुत रोचक शाखा है। अपने मस्तिष्क के विभिन्न क्रियाकलापों के अध्ययन और इस पर किए गए विभिन्न प्रयोगों से हम देखते हैं कि किस प्रकार इसकी कार्य-विधि हमारी चेतना को उत्पन्न और नियंत्रित करती है। किस प्रकार यह हमारे व्यक्तित्व को बनाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। और किस प्रकार हमारे मस्तिष्क और इसके विचारों को बनाने में हमारे जीन्स और हमारी परिस्थितियों की भूमिका होती है।
आज ही मैं इस विषय में एक अध्ययन देख रहा था जिसमें जन्तुओं और मानव-मस्तिष्क के दाएं-बाएं दो हिस्सों को बीच के जोड़ से काट कर अलग कर देने पर उसके प्रभावों से हमें इस विषय में अनेक बातें मालूम पड़ती हैं। मनुष्य में यह कार्य मिर्गी के दौरे के उपचार के लिए किया गया था।
यह आवश्यक नहीं होता है कि किसी प्राणी की बुद्धिमत्ता केवल उसके मस्तिष्क के आकार पर ही निर्भर करती हो। इसके पीछे उसके मस्तिष्क की बनावट, उसके 'सल्काई' और 'गाइराई' की भूमिका भी होती है। उसके न्यूरॉन्स की बनावट, उनके जोड़ों और उनके पाथवेज की भूमिका भी होती है। यह बिल्कुल संभव है कि मानव के विकास-क्रम में जीनस होमो के बाद के प्राणी की खोपड़ी और मस्तिष्क का आकार इसके पहले के प्राणी की अपेक्षा कम हो लेकिन इसके बावजूद वह बुद्धिमत्ता में उससे अधिक हो। आधुनिक विज्ञान के ये बहुत रोचक विषय हैं।
एक वयस्क मानव-शरीर में लगभग 37.2 हजार अरब कोशिकाएं होती हैं जिनमें से अधिकांश जीवित होती हैं। इनमें से एक समय में थोड़ी मृत और कुछ मृत होने की अवस्था में होती हैं और कुछ नई कोशिकाएं जन्म ले रही होती हैं। ये सभी कोशिकाएं शुक्राणु द्वारा अण्डाणु के निषेचन के समय बनी एक कोशिका - जायगोट - के निरन्तर कोशिका-विभाजन द्वारा ही उत्पन्न होती हैं।
ऑक्सीजन पानी में घुलती है - अनेक जीवों में कोशिकाओं तक यह ऐसे ही पहुंचती है, पानी के जीवों में भी यह वायुमंडल और पानी के पौधों से पानी में घुल कर ही पहुंचती है। लेकिन उच्च जीवों में ऑक्सीजन की आवश्यकता अधिक होने के कारण वहां लाल रक्त कोशिकाओं और उनमें हीमोग्लोबिन का विकास हुआ। इसमें लोहे की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। ऑक्टोपस जैसे कुछ जीवों में लोहे के स्थान पर तांबा होने के कारण उनके खून का रंग नीला होता है। इनमें हीमोग्लोबिन के स्थान पर हीमोसाइएनिन होता है। कॉकरोच और चींटियों जैसे अनेक प्राणियों में खून के स्थान पर एक तरल पदार्थ लिम्फ होता है। यह लिम्फ मानव सहित अनेक अन्य उच्च प्राणियों में भी होता है।
किसी प्राणी के शरीर में बदलाव उसके चाहने से नहीं होता है। ऐसा नहीं होता है कि आवश्यकता पड़ने पर कोई प्राणी किसी बदलाव को चाहे और उस चाहने से वैसा हो जाए। जीन्स में बदलाव की अपनी अलग क्रियाविधि होती है जिसको जानना एक बहुत रोचक विषय है।
अपने शरीर, और इस पृथ्वी के प्राणियो के शरीर, एवं जीवन, उसकी उत्पत्ति, और उसके विकास के विषय मे जानना कितना रोचक है !
मनुष्य ज्ञान के पथ पर उत्तरोत्तर अग्रसर है और मै इस ज्ञान और इसकी संभावनाओं के विषय मे विचार करके रोमांच से भर जाता हूं।