तथ्य-विवेचना
भाग 2...
ऊष्मागतिकी का द्वितीय नियम (Second Law of Thermodynamics)
इस श्रृंखला की इस दूसरी कड़ी में मेरे कृपालु, बुद्धिमान, विद्वान और बहुअंगीय विचारधारा से युक्त पाठकों और मित्रों का स्वागत है। आगे बढ़ने से पहले मैं यह कहना चाहता हूं कि अभी मैं केवल वैज्ञानिक तथ्य प्रस्तुत कर रहा हूं। इनसे प्राप्त अपने निष्कर्षों पर मैं इस श्रृंखला की अंतिम कड़ी/कड़ियों में जाऊंगा। कृपया अभी से मेरी ओर से अपने निष्कर्षों को न निकालें। हां, पाठक इन तथ्यों पर अपनी ओर से विचार अवश्य प्रस्तुत करें - मैं उनका आभारी होऊंगा। एक अन्य बात मैं यह कहना चाहता हूं कि निश्चितता और अनिश्चितता और व्यवस्था और अव्यवस्था से सम्बन्धित मेरे इन विचारों, मेरे इस वैज्ञानिक और सामाजिक विश्लेषण, का समाज की सोच की दिशा निर्धारित करने में महत्व है। हमारे समाज में अनेक धारणाएं ऐसी हैं, अनेक धार्मिक और पांथिक मतों की धारणाएं ऐसी हैं, जिन पर गंभीरता-पूर्वक विचार होना चाहिए, जिनको तथ्यों के प्रकाश में देखा जाना चाहिए। मेरा इस विषय पर यह विचार करना इस दिशा में एक बहुत छोटा सा कदम है। यह आवश्यक नहीं है कि मैं हर बात में सही ही हूं किन्तु इन विवेचनाओं से विचार-विमर्श का एक मार्ग खुलता है, हम सही दिशा और सही मार्ग प्राप्त करने की दिशा में एक कदम आगे बढ़ते हैं। इसीलिए मैं इस लेखमाला पर अपने सुधी और खुले मन से विचार करने वाले पाठकों, मित्रों और आदरणीय-जन के विचार आमंत्रित कर रहा हूं।
ऊष्मागतिकी भौतिकी का एक अलग विषय है। यह एक विस्तृत विषय है और इसके बहुत से अर्थ और उपयोग हैं। इसका द्वितीय नियम भी बहुत विस्तृत है। इस नियम के अनेक अर्थ निकलते हैं जो विभिन्न स्थानों पर उपयोग में लाए जाते हैं। इसमें आए हुए एक शब्द 'एन्ट्रॉपी' के भी अनेक अर्थ हैं। वह चीज भी अनेक बातों को बताने के लिए उपयोग में लाई जाती है। इन सब बातों को बहुत विस्तार से समझा जा सकता है। यह भौतिकी का एक अलग खंड ही है।
एक स्थूल रूप में उष्मागतिकी का दूसरा नियम यह कहता है कि कुल मिला कर ऊष्मा अधिक गर्म से कम गर्म पिंड की ओर चलेगी। यह नियम यह भी बताता है कि किसी स्थान पर उपलब्ध ऊर्जा का किसी कार्य के लिए पूरा उपयोग नहीं किया जा सकता है - कुछ ऊर्जा बच जाती है जो बर्बाद हो जाती है। यह नियम यह भी बताता है कि एक 'Isolated' या 'Closed' System में समय के साथ-साथ उसकी एन्ट्रॉपी बढ़ती है। यहां एन्ट्रॉपी के अनेक अर्थों के साथ एक अर्थ अव्यवस्था (Disorderness), अनियमितता (Randomness) और अनिश्चितता (Uncertainity) भी होता है। यह ब्रह्माण्ड का एक मूलभूत प्राकृतिक नियम है। इसका अर्थ हुआ कि किसी अन्य तंत्रों से अलग और 'बंद' तंत्र में समय के साथ उसकी अव्यवस्था कुल मिला कर बढ़ती है - कम नहीं होती है। ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति से लेकर अब तक उसकी अव्यवस्था बढ़ ही रही है। कहीं स्थानीय रूप से अव्यवस्था कम हो सकती है लेकिन कुल मिला कर यह बढ़ती ही है। ऊष्मागतिकी का यह दूसरा नियम अनेक अन्य बातों के साथ यह भी बताता है कि समय के साथ किसी बंद तंत्र का तापमान एक समान हो जाएगा। तब वह तंत्र ऊष्मागतिकीय साम्य (Thermodynamic Equilibrium) में पहुंच जाएगा, तब ऊष्मा का प्रवाह बंद हो जाएगा और उससे कोई कार्य नहीं लिया जा सकेगा। यहां यह समझा जा सकता है कि ये सब बातें तभी लागू होंगी जब उस तंत्र में बाहर से कोई बदलाव नहीं किया जा रहा है।
ऊष्मागतिकी के इस नियम के इस अर्थ को समझाने के लिए अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। मान लीजिए कि कहीं किसी मेज पर चीनी-मिट्टी का एक प्याला रखा है। यह नीचे गिरा और टुकड़ों में टूट गया। चीनी-मिट्टी का प्याला एक व्यवस्थित चीज को दिखाता है और टूटे हुए टुकड़े एक अव्यवस्थित चीज को। तो इस बात की संभावना बहुत अधिक है कि प्याला गिर कर टुकड़ों में टूट जाए लेकिन इस बात की संभावना बहुत कम है कि वह टुकड़े आपस में जुड़ कर एक नया प्याला बना लें। यह ऊष्मागतिकी के दूसरे नियम के विरुद्ध होगा। इसी प्रकार हो सकता है कि कुछ मनुष्य मिल कर एक सुव्यवस्थित घर बना लें जो एक बढ़ी हुई व्यवस्था को दिखाएगा लेकिन इस प्रक्रिया में उन मनुष्यों के शरीर में ग्लूकोज के ऑक्सीकरण से जो ऊष्मा पैदा होगी, वह विसरित होकर कुल मिला कर ब्रह्मांड की अव्यवस्था को बढ़ाएगी।
हमारा ब्रह्माण्ड एक अलग और बंद तंत्र है। यहां पर कमरे के तापमान से अधिक तापमान पर रखी हुई चाय अपने आप और गर्म नहीं होगी - वह ठंडी होगी। उसे गर्म करने के लिए उसे अलग से गर्मी देनी होगी। यहां पर किसी गंदे फर्श के अपने-आप साफ-सुथरा हो जाने की संभावना बहुत कम होगी - अधिक संभावना एक साफ फर्श के गंदा होने की होगी। ऊष्मागतिकी के इस नियम के कारण ही कोई लेख अपने-आप नहीं लिख जाता है, कला की कोई कृति अपने-आप नहीं बन जाती है। ऐसा होना इस नियम के विरुद्ध होगा। जब कोई बुद्धिमान व्यक्ति इस कार्य को करता है तो उसके शारीरिक और मानसिक परिश्रम में ग्लूकोज के ऑक्सीकरण से प्राप्त ऊर्जा के निस्सरण से ब्रह्माण्ड की कुल अव्यवस्था - कुल एन्ट्रॉपी - बढ़ जाती है। इस कार्य के लिए बुद्धि और विशेष रूप से किए गए परिश्रम के अतिरिक्त इस नियम का पूरा होना भी आवश्यक है। बिना उसके यह योजनाबद्ध कार्य पूरा नहीं हो पाएगा।
यहां पर मैं एक अन्य चीज को स्पष्ट करना चाहता हूं। कभी-कभी धार्मिक मतों के अनुयायियों द्वारा यह कहा जाता है कि पृथ्वी पर दिखाई पड़ने वाले अनेकानेक प्राणी अपने आप नहीं बन सकते हैं - इनको किसी बुद्धिमान शक्ति ने ही बनाया होगा - जैसे किसी बंदर द्वारा टाइपराइटर पर उंगलियां मारने से कोई कविता अपने आप नहीं लिख जाती है। हां, यह सत्य है कि किसी बंदर द्वारा टाइपराइटर के कीबोर्ड पर उंगलियां मारने से कोई भावपूर्ण कविता लिखे जाने की संभावना बहुत कम है किन्तु जिस प्रकार प्रकृति में होता है कि जीवों के जीन्स में म्यूटेशन्स आदि अनेक प्रक्रियाओं से प्राप्त विभिन्न गुणों पर प्राकृतिक चयन काम करता है और कुछ अच्छे गुणों को छांट कर आगे बढ़ाता है, उनसे प्राप्त नए जीवों पर निरन्तर यह प्राकृतिक चयन काम करता है और उससे एक नवीन चीज सामने आती है, इस कार्य के लिए किसी बुद्धिमान अलौकिक शक्ति की आवश्यकता नहीं होती है, इसी प्रकार यदि बंदर द्वारा टाइपराइटर पर उंगलियां मारने से प्राप्त शब्दों में से खराब अथवा कम उपयोगी शब्दों को हटा कर, कुछ बेहतर शब्दों को छांट कर एक ओर कर लिया जाए, उन शब्दों पर आगे फिर कार्य हो और उनसे प्राप्त वाक्यों में से बेहतर वाक्यों को छांट कर आगे बढ़ाया जाए तो एक बहुत लंबे समय में इस प्रक्रिया से एक कविता प्राप्त हो भी सकती है। यह सब कार्य ऊष्मागतिकी के दूसरे नियम जैसे अनेक नियमों के अन्तर्गत ही होगा।
इस स्पष्टीकरण के बाद अब हम अपने मूल विचार-प्रवाह पर वापस आते हैं। मान लीजिए कि हमने किसी डिब्बे में एक जिग्सॉ पजल को उसकी निर्धारित आकृति के रूप में व्यवस्थित करके रखा हुआ है। फिर यदि हम डिब्बे को हिलाएं तो वह आकृति छोटे-छोटे अव्यवस्थित टुकड़ों में टूट जाएगी। लेकिन इन टुकड़ों से भरे हुए डिब्बे को पुनः हिलाने पर इस बात की संभावना बहुत कम होगी कि वह टुकड़े परस्पर मिल कर पुनः वही आकृति बना लें। इसका कारण यह है कि अव्यवस्थित अवस्थाएं संख्या में बहुत अधिक होती हैं और व्यवस्थित अवस्थाएं बहुत कम। यह बात भौतिकी के नियमों के अनुसार ही होती है।
मान लीजिए कि किसी डिब्बे के दो हिस्से करके दोनों हिस्सों में अलग-अलग गैसें भर दी जाएं और फिर उनके बीच का अवरोध हटा दिया जाए। तब दोनों गैसों के अणु आपस में मिल जाएंगे। लेकिन इस बात की संभावना बहुत ही कम होगी कि उन दोनों गैसों के अणु अपने-आप ही समय के साथ पुनः अलग-अलग हो जाएं और डिब्बे के अलग-अलग भागों में एकत्र हो जाएं। ऐसा क्यों होता है ? यह बात भी ब्रह्माण्ड के, विज्ञान द्वारा जाने गए, इन प्राकृतिक नियमों के अनुसार ही निर्धारित होती है।
किसी कम्प्यूटर की मेमोरी में कोई बात एकत्र होने पर ब्रह्माण्ड की व्यवस्था बढ़ती है लेकिन साथ ही साथ इस प्रक्रिया में उत्पन्न गर्मी के विसरित होने पर कहीं अधिक अव्यवस्था बढ़ जाती है। यह कार्य जीवित प्राणियों के समान ही होता है। कोशिकाएं टूटने में अव्यवस्था बढ़ती है। यदि नई कोशिकाएं बनने में व्यवस्था बढ़ती भी है, तो उसके लिए आवश्यक ग्लूकोज, प्रोटीन और वसाओं के निर्माण के लिए आवश्यक प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में सूर्य के पदार्थ के टूटने से बनी ऊष्मा के विकिरित होने से ब्रह्माण्ड की कुल एन्ट्रॉपी बढ़ जाती है।
हमारा ब्रह्मांड By default, Disorder की स्थिति में जाना चाहता है। धीरे-धीरे यह Total Chaos की दिशा में बढ़ रहा है। यदि ऐसा नहीं होता तो कोई जीवित प्राणी कोई कार्य भी नहीं कर पाता। वह भोजन के दहन से उर्जा भी प्राप्त नहीं कर पाता। तब मानव के अनेक यंत्र भी कार्य नहीं कर पाते। तब जीवन भी संभव नहीं होता। हमारा ब्रह्माण्ड एक 'हीट डेथ' की ओर बढ़ रहा है। अब से खरबों वर्ष बाद - जब ब्रह्माण्ड के सारे तारे अपनी सारी ऊर्जा दे चुके होंगे और जब पूरे ब्रह्माण्ड का तापमान एक समान हो जाएगा, तब - कोई कार्य नहीं हो सकेगा। उस समय ब्रह्माण्ड की अव्यवस्था अधिकतम - Entropy Maximum - होगी। वह एक Total Chaos की अवस्था होगी। तब ब्रह्माण्ड मृत अवस्था में होगा।
ऊष्मागतिकी का यह नियम समय के बहाव की दिशा को भी तय करता है। समय के बहाव की दिशा अनेक प्रकार से निर्धारित की जा सकती है। उनमें एक प्रकार यह ऊष्मागतिकी का नियम भी है। जिस दिशा में ब्रह्माण्ड की कुल अव्यवस्था बढ़े, उस दिशा में समय का नियमित प्रवाह होता है। ऊष्मागतिकी का यह नियम कुछ घटनाओं की अपरिवर्तनीयता, उनका पुन: अपने मूल रूप में न हो पाना (Irriversibility of some Events) और ब्रह्माण्ड के 'Spontaneous Evolution towards Thermodynamic Equilibrium' को भी दिखाता है। इन बातों के अर्थों को विस्तार से समझा जा सकता है लेकिन मैं इसे यहां बहुत संक्षेप में ही ले सकता हूं।
इस प्रकार हम देख रहे हैं कि ऊष्मागतिकी का यह नियम ब्रह्माण्ड में एक अव्यवस्था को दिखाता है - यद्यपि मेरा इस प्रकार कहना इस बात को कहने का एक बहुत सरल ढंग ही है। बहरहाल, ब्रह्माण्ड के इस गुण से क्या निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं, इस बात को मैं इस श्रृंखला की अंतिम कड़ी/कड़ियों में लूंगा।
क्रमशः - क्वान्टम भौतिकी और उसके कुछ तथ्य
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